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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २८१ स्वामिनं वैभारपर्वते समागतमाकर्ण्य आनन्दभेरी दापयित्वा महता विभवेन तं वन्दितु गतः । श्रेष्ठिन्यादौ च गृहजने वन्दनाभक्त्यर्थ गते स भेकः प्रांगणवापीकमल पूजानिमित्त गृहीत्वा गच्छन् हस्तिनः पादेन चूर्णयित्वा मृतः । पूजानुरागवशेनोपार्जित पुण्य प्रभावात् सौधर्मे महद्धिकदेवो जातः । अवधिज्ञानेन पूर्वभववृत्तान्तं ज्ञात्वा निजमुकुटाग्रे भेकचिह्न कृत्वा समागत्य वर्धमानस्वामिनं वन्दमानः श्रेणिकेन दृष्टः । ततस्तेन गौतमस्वामी भेकचिह्नस्य किं कारणमिति पृष्टः तेन च पूर्नवृत्तान्तः कथितः। तच्छ् त्वा सर्ने जनाः पूजातिशय विधाने उद्यताः संजाता इति ॥३० ।
आगे पूजा का माहात्म्य क्या कहीं किसी ने प्रकट किया है, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
(प्रमोदमत्तः) हर्ष से प्रमत्त (भेक:) मेंढक ने (राजगृहे) राजगह नगर में (एकेन कुसुमेन) एक पुष्प के द्वारा ( महात्मनां ) भन्य जीवों के आगे ( अर्हच्चरणसपर्यामहानुभावं ) अर्हन्त भगवान् के चरणों की पूजा का माहात्म्य ( अवदत् ) प्रकट किया था ।
____टोकार्थ-विशिष्ट धर्मानुराग से हर्षित मेंढक ने राजगृही नगरी में भध्य जीवों को यह बतलाया कि एक फूल से अर्हन्तभगवन्त के चरणों की पूजा करने वालों को क्या फल होता है। इसकी कथा इस प्रकार है
- मेंढक की कथा मगधदेश के राजगृह नगर में राजा श्रेणिक, नागदत्त सेठ और उसकी भवदत्ता नामकी सेठानी रहती थी। वह नागदत्त सेठ सदा माया से युक्त रहता था । इसलिए मरकर अपने आंगन की बावड़ी में मेंढ़क हो गया। एक दिन भवदत्ता-सेठानी को आई हुई देख उस मेंढ़क को जातिस्मरण हो गया जिससे वह समीप आकर उसके ऊपर उछलकर चढ़ गया। सेठानी ने उसे बार-बार अलग किया। अलग करने पर टर-टर्र शब्द करता और फिर आकर उसके ऊपर चढ़ जाता। तदनन्तर सेठानी ने यह विचार किया कि यह मेरा कोई इष्ट होगा। ऐसा विचार कर उसने अवधिज्ञानी सुव्रत मुनि से पूछा । मुनि के द्वारा उसका वृत्तान्त कहे जाने पर सेठानी ने उसे घर ले जाकर बड़े गौरव से रखा।