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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
जिनेन्द्र भक्त निर्विकार जिनमुद्रा का दर्शन करते हुए यह भाव करता है कि आपके समान मेरी मुद्रा है, मेरा स्वरूप भी आपके समान है परन्तु मैं अपने स्वभाव को भूल कर विभावरूप परिणमन करता हुआ संसार के अनन्त दुःखों का भाजन बना हुआ हूँ अतः आपकी भक्ति-उपासना से मैं भी वीतराग अपने शुद्ध स्वभाव को प्राप्त करू यही चाहता हूँ, मैं संसार के सुखों का आकांक्षी अर्थात् विषयलोलुपी नहीं बनूं, न मुझे इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों की कामना ही है क्योंकि ये सब पद तो अपद हैं, मुझे तो निजपद चाहिए, जो पद आपने प्राप्त किया है उसी की प्राप्ति मुझे भी हो, इस प्रकार की तीव्र शुभ भावना से मन में आह्लाद उत्पन्न होता है, इससे महान् पुण्यबन्ध और अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है, सभी मनोरथों की सिद्धि होती है, किसी भी भव भवान्तर में पूजक भी पूज्य बन जाता है। भगवान की भक्ति में इस प्रकार की शक्ति पायी जाती है । यह अरहन्त भक्ति-पूजा का फल है कि उपासक भी एक दिन 'उपास्य' बन जाता है। ।। २६ ।। ११६ ॥
पूजामाहात्म्यं किं क्वापि केन प्रकटितमित्याशंक्याह---
अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥ ३० ॥
भेको मण्डूकः । प्रमोदमत्तो विशिष्टधर्मानुरागेण हृष्टः । अवदत् कथितवान् । किमित्याह — अर्हदित्यादि । अर्हतश्चरणौ अर्हच्चरणौ तयोः सपर्या पूजा तस्याः महानुभावं विशिष्ट माहात्म्यं । केषामवदत् ? महात्मनां भव्य जीवानां । केन कृत्वा ? कुसुमेनकेन । क्या ? राजगृहे ।
अस्य कथा
मगधदेशे राजगृहनगरे राजा श्रेणिकः, श्रेष्ठी नागदत्तः, श्रेष्ठिनी भवदत्ता । स नागदत्तः श्रेष्ठी सर्वदा मायायुक्तत्वान्मृत्वा निजप्राङ्गणवाप्यां भेको जातः । तत्र चागतामेकदा भवदत्ताश्रष्ठिनीमालोक्य जातिस्मरो भूत्वा तस्याः समीपे आगत्य उपर्युत्प्लुत्य चटितः । तया च पुनः पुनिघाटितो रटति, पुनरागत्य चटति च । ततस्तया कोऽप्ययं मदीयो इष्टो भविष्यतीति सम्प्रधार्यावधिज्ञानी सुब्रतमुनिः पृष्टः । तेन च तद्वृत्तान्ते कथिते गृहे नीत्वा परमगौरवेणासी धृतः । श्रेणिक महाराजश्चैकदा वर्धमान