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रत्नकरण्ड धावकाचार
[ २७९ जिनालय है । इस प्रकार नौ देवतारूप अरहन्त भगवान के प्रतिबिम्ब का अभिषेक पूजन नित्य करना श्रावक का नित्यप्रति का कार्य है। अरहन्त भगवान सौ इन्द्रों के द्वारा पूजित हैं । इस प्रकार त्रिलोक के भव्यों के द्वारा वंद्य अरहन्तदेव के तदाकार प्रतिबिम्ब का सदाकाल अभिषेक पूजन करना चाहिए।
पूजा दो प्रकार की है । द्रव्यपूजा और भावपूजा । अरहन्त भगवान के प्रतिबिम्ब की जल, चन्दनादि अष्ट द्रव्यों को चढ़ाकर पूजा करना द्रव्यपूजा है । तथा अरहन्त के मुणों में एकाग्रचित्त होकर अन्य समस्त विकल्प जाल छोड़कर अनुराग रखना, अरहन्त का ध्यान करना भावपूजा है । यद्यपि अरहन्तदेव पूजा से प्रसन्न होकर किसी को कुछ देते नहीं हैं । क्योंकि वे वीतराग हैं और निन्दा करने से अप्रसन्न होकर किसी की कुछ भी हानि नहीं करते क्योंकि वे वैर-विरोध से रहित हैं । किन्तु फिर भी अरहन्त भगवन्त की पूजा करने से जो पुण्य का संचय होता है उससे अनन्तभवों की बँधी हुई पाप कर्मा की परम्परा का नाश हो जाता है और मनोरथों की पूर्ति हो जाती है, तथा सुख की प्राप्ति और दुःखों का नाश हो जाता है । इस प्रकार से जो अरहन्त के गुणों में अनुरागी है, वह पूजक कहलाता है । तथा समस्त दुःखों का नाश हो जाना पूजा का फल है। आचार्यश्री ने 'कामदुहि कामदाहिनि देवाधिदेवचरणे' इन पदों के द्वारा पूज्य अरहन्त देव का वर्णन किया, तथा यह बतलाया कि जो वाञ्छित फलों को पूर्ण करने वाला हो और कामादि विकारीभावों का नाश करने वाला हो, वही पूज्य हो सकता है।
पूजा का वर्णन करते हुए आचार्य ने 'आइत:' 'परिचरणं' शब्दों द्वारा यह प्रकट किया है कि पूजा करने वाला अत्यन्त आदर से देव, शास्त्र तथा गुरु की उनके अनुकूल परिचर्या करे अर्थात् अरहंत प्रतिमा का श्रद्धापूर्वक अभिषेक, पूजन करना, शास्त्रों की विनयपूर्वक सुरक्षा करना, और उनमें प्रतिपादित तत्त्वों का पठन, अवधारण, प्रचार करना तथा निर्ग्रन्थ मुनियों को नवधाभक्तिपूर्वक आहारदानादि देकर उनकी वैयावृत्ति करना, ये सब कार्य पूजक को करने चाहिए ।
तथा पूजा के फल का वर्णन करते हुए 'सर्वदुःखनिहरणं' इस पद के द्वारा यह प्रकट किया है कि पूजा सब दुःखों को अर्थात् जन्म-मरण-जरा की परम्परा को समूल नष्ट करने वाली है। जिनेन्द्रवन्दन से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, जिनमन्दिर के निमित्त से ध्यान, स्वाध्याय, जप, ह्वन, तत्त्वचर्चा आदि शुभ क्रियायें होती हैं ।