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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
यथा वैयावृत्यं विदधता चतुविधं दानं दातव्यं तथा पूजाविधानमपि
कर्तव्यमित्याह
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देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामतुहि कामाहिति पादावृतो नित्यम् ॥ २६ ॥
अत: आदरयुक्तः नित्यं परिचिनुयात् पृष्टं कुर्यात् । किं ? परिचरणं पूजां । किविशिष्टं ? सर्वदुःखनिर्हरणं निःशेषदुःखविनाशकं । क्व ? देवाधिदेवचरणे देवानामिन्द्रादीनामधिको वन्द्यो देवो देवाधिदेवस्तस्य चरणः पादः तस्मिन् । कथंभूते ? कामदुहि वाञ्छित । तथा कामदाहिनि कामविध्वंसके ॥ २६ ॥
वैयावृत्य करने वाले श्रावक को जिस तरह चार प्रकार का दान देना चाहिए उसी तरह भगवान की पूजा भी करनी चाहिए यह कहते हैं
( आइतः ) श्रावक को आदर से युक्त होकर ( नित्यं ) प्रतिदिन ( कामदुहि ) मनोरथों को पूर्ण करने वाले और (कामदाहिनि ) काम को भस्म करने वाले (देवाधिदेवचरणे) अरहन्त भगवान के चरणों में ( सर्वदुःखनिर्हरणं ) समस्त दुःखों को दूर करने वाली (परिचरणं ) पूजा ( परिचिनुयात्) करनी चाहिए ।
टोकार्थ – इन्द्रादिक देवों के द्वारा वन्दनीय अरहन्त भगवान देवाधिदेव कहलाते हैं । उनके चरणकमल वाञ्छित फल देने वाले हैं और कामदेव को विध्वंस करने वाले हैं इसलिए गृहस्थों को चाहिए कि वे आदरपूर्वक प्रतिदिन अरहन्तदेव की पूजा करें क्योंकि उनकी पूजा समस्त दुःखों का नाश करने वाली है ।
विशेषार्थ - गृहस्थ के षट् आवश्यक कार्यों में देव पूजा का प्रमुख स्थान है । पूजा में चार बातों पर विचार किया जाता है। पूज्य, पूजा, पूजक और पूजा का फल । वीतराग सर्वज्ञदेव हमारे पूज्य हैं । अथवा अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर ये नौ देवता हैं । अरहन्त के प्रतिबिम्ब में नौ देवता गर्भित हो जाते हैं। क्योंकि आचार्य, उपाध्याय और साधु ये अरहन्त की पूर्व अवस्थायें हैं । अरहन्त अवस्था के पश्चात् नियम से सिद्धावस्था प्राप्त होती है । अरहन्त की वाणी जिनवचन है । और जिनेन्द्रवाणी के द्वारा प्रकाशित जो अर्थ है वह जिनधर्म है । एवं अरहन्त की प्रतिमा को जहां स्थापित किया जाता है वह