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वह शास्त्र दे दिया । उस शास्त्र के द्वारा पहले के कितने ही मुनियों ने स्वयं पूजा करके तथा दूसरों से कराकर व्याख्यान किया था । उसके बाद वे उस शास्त्र को उसी कोटर में रखकर चले गये थे । गोविन्द बचपन से ही उस शास्त्र को देखकर नित्य ही उसकी पूजा करता था । यह वही गोविन्द निदान से मरकर उसी ग्राम में ग्राम प्रमुख का पुत्र हुआ। एक बार उन्हीं पद्मनन्दी मुनि को देखकर उसे जातिस्मरण हो गया, जिससे तप धारणकर वह कौण्डेश नामका बहुत बड़ा शास्त्रों का पारगामी मुनि हुआ । यह श्रुतज्ञान-शास्त्रदान का फल है ।
वसतिका दान में सूकर का दृष्टान्त है । इसकी कथा इस प्रकार है—
सूकर की कथा
मालवदेश के घट ग्राम में देविल नामका एक कुम्हार और धमिल्ल नामका एक नाई रहता था । उन दोनों ने पथिकों के ठहरने के लिए एक धर्म स्थान बनवाया । एक दिन देविल ने मुनि के लिए वहां पहले निवास स्थान दे दिया । पश्चात् धमिल्ल ने एक परिव्राजक को वहां लाकर ठहरा दिया । धमिल्ल और परिवाजक ने उन मुनिराज को वहां से निकाल दिया, जिससे वे वृक्ष के नीचे रात भर डाँस मच्छर तथा शीत आदि की बाधा को सहन करते हुए ठहरे रहे । प्रातःकाल ऐसा करने से देविल और धमिल्ल दोनों में परस्पर युद्ध हुआ, जिससे दोनों मरकर विन्ध्याचल में (देविल ) सूकर और ( धमिल्ल) व्याघ्र हुए। वे क्रम-क्रम से बड़े हुए। जिस गुफा में वह सूकर रहता था उसी गुफा में एक दिन समाधिगुप्त और त्रिगुप्त नामके दो मुनि आकर ठहर गये । उन्हें देखकर देविल के जीव सुकर को जातिस्मरण हो गया, जिससे उसने धर्म श्रवण कर व्रत ग्रहण कर लिये। उसी समय मनुष्य की गन्ध को सूंघकर मुनियों का भक्षण करने के लिए वह व्याघ्र जो धमिल्ल का जीव या वह वहां आ पहुँचा । सुकर उन मुनियों की रक्षा के निमित्त गुफा के द्वार पर खड़ा हो गया। वहां भी वे दोनों परस्पर युद्ध कर मरे, सूकर ने मुनियों की रक्षा के अभिप्राय से अच्छे भावों को धारण किया था, इसलिए वह मरकर सौधर्मस्वर्ग में महान् ऋद्धियों को धारण करने वाला देव हुआ | परन्तु व्याघ्र भुनियों के भक्षण के अभिप्राय से खोटे भावों को धारण करने से मरकर नरक गया । यह वसतिदान का फल है ।। २८ ।। ११८ ।।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार