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वहाँ छोड़ आई । एक दिन वृषभसेना के कम्बल को ओढ़कर मेघपिंगल सेवा के समय राजा उग्रसेन की सभा में गया । और राजा उग्रसेन उस कम्बल को देखकर अत्यन्त क्रोध से लाल-लाल नेत्रों वाला हो गया । मेघपिंगल, उसे उस प्रकार देख, 'यह मेरे ऊपर कुपित है' ऐसा जानकर दूर चला गया। और क्रोध से युक्त राजा उग्रसेन ने मारने के लिए वृषभसेना को समुद्र के जल में फिंकवा दिया। वृषभसेना ने प्रतिज्ञा की कि यदि इस उपसर्ग से उद्धार पा सकूंगी तो तप करूंगी । तदनन्तर व्रत के माहात्म्य से जल देवता ने उसके लिए सिंहासन आदि का अतिशय किया । यह सुनकर पश्चाताप करता हुआ राजा उसे लेने के वापिस आते हुए राजा ने बन के बीच गुणधर नामके एक अवधिज्ञानी वृषभसेना ने नमस्कार कर उनसे अपने पूर्वभव का समाचार पूछा। भगवान मुनि ने कहा- कि तू पूर्वभव में इसी नगर में नागश्री नामकी ब्राह्मणपुत्री थी और राजा के देवमन्दिर में झाड़ने का कार्य करती थी। एक दिन उस सन्दिर में अपराह्न के समय कोट के भीतर वायु रहित गहरे स्थान में मुनिदत्त नामके एक मुनि पर्यङ्कासन से कायोत्सर्ग कर विराजमान थे । तूने क्रुद्ध होकर उनसे कहा कि कटक से राजा यहां आयेंगे, अतः तुम यहां से उठो, मुझे झाड़ना है । इस तरह तू कहती रही, परन्तु मुनि कायोत्सर्ग कर मौन से स्थित रहे । तदनन्तर तूने कचरे से उन्हें ढककर ऊपर से झाड़ू दे दी । प्रातःकाल जब राजा आया और क्रीड़ा करता हुआ उस स्थान पर पहुँचा तब उसने श्वास के कारण ऊंचे-नीचे होते हुए उस स्थान को देखकर खुदवाया और उन मुनिको बाहर निकाला । तदनन्तर तूने आत्मनिन्दा कर धर्म में श्रद्धा की और उन मुनि की पीड़ा को शान्त करने के लिए बड़े आदर से उन्हें विशिष्ट औषध दी तथा उनकी सेवा की । तदनन्तर निदान से मरकर तू यहां धनपति और धनश्री के वृषभसेना नामकी पुत्री हुई है । औषधदान के फल से तुम्हें सर्वोषधऋद्धि का फल प्राप्त हुआ है। तथा कचरे से ढकने के कारण तू कलंक को प्राप्त हुई है । यह सुनकर वृषभसेना अपने आपको राजा से छुड़ाकर उन्हीं मुनि के समीप आर्यिका हो गयी । यह औषधदान का फल है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
लिए गया । मुनिको देखा
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शास्त्रदान में कौण्डेश का दृष्टान्त है । उसकी कथा इस प्रकार है
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कौण्डेश को
कथा
कुरुमणिग्राम में गोविन्द नामका एक ग्वाला रहता था। उसने कोटर से निकालकर एक प्राचीन शास्त्र की पूजा की तथा भक्तिपूर्वक पद्मनन्दी मुनि के लिए