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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २७५ बना दिया । राजा अन्य सब कार्यों को छोड़कर अतिशय प्रिय उसी बृषभसेना के साथ क्रीड़ा करने लगा।
इसी अवसर पर वाराणसी का एक पृथ्वीचन्द्र नामक राजा उसके यहां कैद था । उसे अत्यन्त शक्तिशाली होने के कारण राजा ने वृषभसेना के विवाह के समय भी नहीं छोड़ा था। तदनन्तर पृथ्वीचन्द्र की जो नारायणदत्ता नामकी रानी थी उसने मन्त्रियों के साथ सलाह कर, पृथ्वीचन्द्र को छुड़वाने के लिए वाराणसी में सब जगह वृषभसेना रानी के नाम से ऐसे पोजनाह मुसगारे, गिों निजी के लिए प्रवेश करने का निषेध नहीं था। उन भोजनगृहों में भोजन कर जो ब्राह्मणादिक कावेरीपत्तन गये थे उनसे उस वृत्तान्त को सुनकर रूपवती धाय ने रुष्ट हो वृषभसेना से कहा कि हे वृषभसेने ! तुम मुझ से बिना पूछे ही वाराणसी में भोजनगृह क्यों बनवा रही हो । वृषभसेना ने कहा कि मैं नहीं बनवा रही हूँ किन्तु मेरे नाम से किसी कारणवश किसी अन्य ने बनवाये हैं । तुम इसका पता लगाओ। तदनन्तर गुप्तचरों से पता लगवाकर तथा यथार्थ बात जानकर उसने वृषभसेना से सब समाचार कहा। वृषभसेना ने यह सब राजा से कहकर पृथ्वीचन्द्र को बन्धन से छुड़वा दिया ।
पृथ्वीचन्द्र ने एक चित्रपट्ट पर वृषभसेना और उग्रसेन के चित्र बनवाये तथा उनके नीचे प्रणाम करता हुआ अपना चित्र बनवाया। वह चित्रपट्ट उन दोनों के लिए दिखाया गया और वृषभसेना रानी से कहा गया कि हे देवी ! तुम मेरी माता हो, तुम्हारे प्रसाद से मेरा यह जन्म सफल हुआ है। तदनन्तर उग्रसेन ने सम्मान देकर कहा कि तुम्हें मेपिङ्गल पर जाना चाहिए, ऐसा कहकर उन दोनों ने उसे वाराणसी भेज दिया। मेघपिङ्गल भी यह सुनकर तथा 'यह पृथ्वीचन्द्र मेरा मर्मभेदी है' ऐसा विचार कर आया और उग्रसेन से सम्मान प्राप्त कर उसका सामन्त बन गया। राजा उग्रसेन ने ऐसी व्यवस्था को कि राजसभा में स्थित रहते हुए मेरे लिये जो भेंट आती है उसका आधा भाग मेपिंगल को दूंगा और आधा भाग वृषभसेना के लिए। इस प्रकार की व्यवस्था किये जाने पर एक दिन रत्नकम्बल भेंट में आये। राजा ने उसे नाम से चिह्नित कर एक-एक कम्बल दोनों के लिए दे दिया।
एक दिन मेघपिङ्गल की रानी विजया, मेघपिङ्गल का कम्बल ओढ़कर किसी कार्य से रूपवती के पास गई । वहां उसका कम्बल बदल गया अर्थात् वह वृषभसेना के नाम से अंकित कम्बल ले आई और मेघपिङ्गल के नाम से अंकित कम्बल को