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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
औषधदान में वृषभसेना का दृष्टान्त है । उसकी कथा - वृषभसेना की कथा
जनपद देश के कावेरीपत्तन नगर में राजा उग्रसेन रहते थे। वहीं एक धनपति नामका सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम धनश्री था । उन दोनों के वृषभसेना नामकी पुत्री थी। वृषभसेना की रूपवती नामकी धाय थी। एक दिन वृषभसेना के स्नानजल के ग्रहों में एक रोगी कुत्ता गिरकर जन उसमें लौटने के बाद निकला तो वह रोग रहित हो गया । उसे देखकर धाय ने विचार किया कि इसकी नीरोगता का कारण पुत्री का स्नानजल ही हैं । तदनन्तर धाय ने यह समाचार अपनी माता से कहा । उसकी माता बारह वर्ष से नेत्र रोग से पीड़ित थी । माता ने एक दिन परीक्षा के लिए अपने नेत्र उस जल से धोये तो धोने के साथ ही ठीक दिखने लगा । इस घटना से वह धाय उस नगर में सब रोगों को दूर करने वाली है, इस तरह प्रसिद्ध हो गयी ।
एक समय राजा उग्रसेन ने अपने रणपिङ्गल नामक मन्त्री को बहुत सेना से युक्त कर मेघपिङ्गल पर चढ़ाई करने भेजा । मन्त्री ज्यों ही उस देश में प्रविष्ट हुआ त्यों ही विषमिश्रित पानी का सेवन करने से ज्वर से ग्रसित हो गया । जब वह लौटकर आया तब रूपवती धाय ने उसे उस जल से नीरोग कर दिया । राजा उग्रसेन भी क्रोधवश वहां गया और ज्वर से आक्रान्त हो लौटकर आ गया । रणपिङ्गल से जल का वृत्तान्त सुनकर राजा ने भी उस जल की याचना की । तदनन्तर धनश्री सेठानी ने सेठ से सलाह की कि हे श्रेष्ठिन् ! राजा के सिर पर पुत्री के स्नान का जल कैसे डाला जावे ? धनपति सेठ ने कहा कि यदि राजा जल का स्वभाव पूछता है तो सत्य कह दिया जावेगा उसमें दोष नहीं है। ऐसा कहने पर रूपवती धाय ने उग्रसेन राजा को उस जल से नीरोग कर दिया । तदनन्तर नीरोग राजा ने रूपवती से जल का माहात्म्य पूछा। रूपवती ने सब सत्य ही कह दिया । पश्चात् राजा ने सेठ को बुलाया और वह डरते-डरते राजा के पास आया। राजा ने सम्मान कर उससे वृषभसेना को विवाह देने की याचना की। तदनन्तर सेठ ने कहा कि 'हे राजन् ! यदि तुम जिन प्रतिमाओं की आष्टाह्निक पूजा करते हो, पिंजड़ों में स्थित समस्त पक्षियों को छोड़ते हो और बन्दीगृह में स्थित सब मनुष्यों को बन्धन से मुक्त करते हो तो मैं अपनी पुत्री देता हूँ ।' राजा उग्रसेन ने वह सब कर वृषभसेना को विवाह लिया तथा उसे पट्टरानी