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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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श्रीषेण राजा की कथा
मलयदेश के रत्नसंचयपुर में राजा श्रीषेण रहता था । उसकी बड़ो रानी का नाम सिंहनन्दिता और छोटी रानी का नाम अनिन्दिता था । दोनों रानियों के क्रम से इन्द्र और उपेन्द्र नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए। उसी नगर में सात्यकि नामका एक ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम जम्बू और पुत्री का नाम सत्यभामा था। पाटलिपुत्र नगर में एक रुद्रभट्ट नामका ब्राह्मण बालकों को वेद पढ़ाया करता था । उसकी दासी का पुत्र कपिल तीक्ष्णबुद्धि होने से पूर्णकदेव को हुआ उसका पारगामी विद्वान् हो गया । रुद्रभट्ट ने क्रुद्ध होकर उस कपिल को पाटलिपुत्र नगर से बाहर निकाल दिया ।
वह कपिल दुपट्टे सहित यज्ञोपवीत धारण कर ब्राह्मण बन रत्नसंचय नगर में चला गया। सात्यकि ब्राह्मण ने उसे वेद का पारगामी तथा सुन्दर देख 'यह सत्यभामा के योग्य है' ऐसा मान उसके लिए सत्यभामा दे दी । सत्यभामा, रति के समय उसकी विट जैसी चेष्टा देखकर 'यह कुलीन है या नहीं ?" ऐसा विचार कर मन में खेद को धारण करती हुई रहती थी। इसी अवसर पर रुद्रभट्ट तीर्थयात्रा करता हुआ रत्नसंचय नगर में आया । कपिल उसे प्रणाम कर अपने सफेद गृह में ले गया तथा भोजन और वस्त्र आदि दिलाकर उसने सत्यभामा तथा अन्य समस्त लोगों के सामने कहा कि 'यह मेरा पिता है' । सत्यभामा ने एक दिन रुद्रभट्ट को तथा बहुतसा सुवर्ण देकर उसके पैरों में लगकर पूछा कि हे तात ! स्वभाव का अंश भी नहीं है, इसलिए यह आपका पुत्र है अथवा नहीं यह मेरे लिए सत्य कहिये । तदनन्तर रुद्रभट्ट ने कहा कि 'हे पुत्रि ! यह मेरी दासी का पुत्र है ।' यह सुनकर वह उससे विरक्त हो गयी तथा 'यह हठपूर्णक मेरे पास आयेगा ऐसा मानकर वह सिंहनन्दिता नामक बड़ी रानी की शरण में चली गयी । सिंहनन्दिता ने उसे पुत्री मानकर रख लिया। इस प्रकार एक दिन श्रीषेण राजा ने परमभक्ति से विधिपूर्वक अर्ककीति और अमितगति नामक चारण मुनियों को दान दिया । उसके फल स्वरूप वह रानी राजा के साथ भोगभूमि में उत्पन्न हुई । सत्यभामा ने भी उस दान की अनुमोदना की थी, इसलिए वह भी उसी भोगभूमि में उत्पन्न हुई । राजा श्रीषेण आहारदान के कारण परम्परा से शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए । यह आहारदान का फल है ।
विशिष्ट भोजन कपिल में आपके