________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २६१
जो धर्मात्माओं की सेवा में स्वयं तत्पर रहता है, उसमें आलस्य नहीं करता, उस शाखा को कहा है। अर्थात् पात्र के गुणों में अनुराग रखता है । जिसको पहले किये गये और वर्तमान में दिये जाने वाले दान से हर्ष होता है वह तौष्टिक है । अर्थात् दान देने से हर्ष का होना । देय में आसक्ति न होना तुष्टिगुण है । साधुओं को दान देने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है । ऐसी जिसकी श्रद्धा है वह दाता श्रद्धागुण से युक्त है अर्थात् पात्रदान से प्रतीति का होना श्रद्धा है । जो द्रध्य, क्षेत्र, काल, भाव का सम्यक्रूप से विचार करके साधुओं को दान देता है वह दाता ज्ञानी है । अर्थात् द्रव्य आदि को जानना ज्ञान है । जो दान देने पर भी मन-वचनकाय से सांसारिक फल की याचना नहीं करता वह दाता अलोलुपी है । अर्थात् संसारिक फल की अपेक्षा न करना अलोलुपता है। जो साधारण स्थिति का होते हुए भी ऐसा दान देता है जिसे देखकर धनवानों को भी आश्चर्य होता है, वह दाता साविक है । अर्थात् सत्य एक ऐसा मनोगुण है जो दाता को उदार बनाता है । दुर्निवार कलुषता के कारण उत्पन्न होने पर भी जो किसी पर कुपित नहीं होता वह दाता क्षमाशील है । इस प्रकार दाता के सात गुण कहे ।
पुरुषार्थसिद्धय पाय में दाता के सात गुण इस प्रकार कहे हैं - सांसारिक फल की अपेक्षा नहीं करना, अर्थात् अलोलुपता, क्षमा, निष्कपटता - बाहर में भक्ति करना और अन्तरंग में बुरे भाव नहीं रखना, अनसूया - अन्य दाताओं से द्वेषभाव न होता । अविषादखेद न होना । मुदित्व -दान से हर्ष होना और निरहंकारता ।
सोमदेव ने दान के तीन भेद दान अपनी प्रसिद्धि की भावना से भी जाता है जब किसी के द्वारा दिये गये है । पात्र और अपात्र को समान मानकर बिना किसी आदर-सम्मान और स्तुति के जाता है, वह दान तामस है । जो दान स्वयं वह दान साविक है, इन तीनों दानों में मध्यम है और तामसदान निकृष्ट है ।
किये हैं- राजस, तामस, और सात्त्विक । जो कभी-कभी ही दिया जाता है और तब दिया दान का फल देख लिया जाय, वह दान राजस या पात्र को भी अपात्र के समान मानकर नौकर-चाकरों के उद्योग से जो दान दिया पात्र को देखकर श्रद्धापूर्वक दिया जाता है, सात्त्विक दान ही उत्तम है। राजस दान
---
पात्र का स्वरूप और मेव जो जहाज की तरह अपने आश्रितों को अर्थात् दान के कर्ता, कराने वाले और दान की अनुमोदना करने वालों को संसार-समुद्र से