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________________ २६२ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार पार कर देता है, वह पात्र है। मुक्ति के कारण या मुक्ति ही जिसका प्रयोजन है उन सम्यग्दर्शन आदि गुणों के संयोग के भेद से पात्र के तीन भेद हैं-मुनि उत्तमपात्र, प्रतीश्रावक मध्यमपात्र और अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्यपात्र है। गुणविशेष के सम्बन्ध से उन उत्तम, मध्यम और जघन्यपात्रों में परस्पर भेद है। __ मुनि, यति या साधुओं में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों रत्नों का संयोग रहता है। श्रावक में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ एकदेश संयम रहता है । और असंयतसम्यग्दृष्टि में एकदेश भी संयम नहीं है । इस प्रकार गुणों के भेद से पात्र में भेद होता है । दान का फल और उसकी विशेषता-दान का फल दान देने वाले और दान लेने वाले दोनों को ही मिलता है । जो दान ग्रहण करता है वह अपने धर्म-साधन में लगकर अपने आत्मिक गुणों की उन्नति करता है और जो दान देता है वह पुण्यकर्म का बन्ध करता है। यदि दान सात्विक होता है तो विशेष पुण्य का बन्ध होने से दाता भोगभूमि से लेकर स्वर्ग तक जाता है और वहां से चक्रवर्ती आदि पद प्राप्त करके मोक्ष चला जाता है । सोमदेवसरि ने कहा है जिससे अपना और परका उपकार हो वही दान है। जैसे खेती का मुख्य फल धान्य है, वैसे ही पात्र दान का मुख्य फल मोक्ष है । और खेती का आनुषंगिक फल भूसा है वैसे ही पात्रदान का आनुषंगिक फल भोग-प्राप्ति है ।।२३।।११३॥ इत्थं दीयमानस्य फलं दर्शयन्नाहगृहकर्मणापि निचितं कर्मविमाष्टि खलु गृहविमुक्तानाम्। अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥ २४ ॥ विमाष्टि स्फेटयति | खलु स्फुटं । किं तत् ? कर्मपापरूपं । कथंभूतं ? निचितमपि उपार्जितमपि पुष्टमपि वा। केन ? गृहकर्मणा सावधव्यापारेण । कासी की ? प्रतिपूजा दानं । केषां? अतिथीनां न विद्यते तिथिर्येषां तेषां । किविशिष्टानां ? गहविमुक्तानां गृहरहितानां । अस्यवार्थस्य समर्थनार्थ दृष्टान्तमाह-रुधिरमलं धावते वारि । अलंशब्दो यथार्थे । अयमर्थो रुधिरं यथा मलिनमपवित्रं च वारि कर्तृ निर्मल पवित्रं च धावते प्रक्षालयति तथा दानं पापं विमाष्टि ॥२४।।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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