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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २५.३ विशेषार्थ-प्रोषधोपवास के पांच अतिचार हैं । तत्त्वार्थसूत्र में भी इस व्रत के पांच अतिचार बतलाये हैं । 'अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गदानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मुत्यनुपस्थानानि' अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितदान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और अस्मरण ।
पं० आशाधरजी ने भी इसी प्रकार से अतिचार बतलाये हैं। पुरुषार्थसिद्धय - पाय में स्मृत्यनुपस्थान तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्मरण नामका अतिचार है। इन सब में शब्द भेद है, अर्थभेद नहीं है । ग्रहण, आस्तरण, उत्सर्ग इन तीन के साथ अनवेक्षा और अप्रमार्जन लगता है । जन्तु हैं या नहीं, यह आंखों से देखना अवेक्षा है। और कोमल उपकरण से साफ करना-पोंछना, झाड़ना आदि प्रमार्जन है । ये दोनों नहीं होना अनवेक्षा और अप्रमार्जन है। यहां अनवेक्षा से दूर से देखना और अप्रमार्जन से दुष्टतापूर्वक प्रमार्जन करना भी लिया जाता है। ठीक से देखे बिना और कोमल उपकरण से साफ किये बिना अर्हन्तादि की पूजा के उपकरणों को, पुस्तकों को और अपने पहनने के वस्त्रादि को ग्रहण करना, तथा रखना, संस्तर बिछाना, मल-मूत्र आदि त्यागना ये तीन अतिचार हैं और भूख से पीड़ित होने से आवश्यकों में अथवा प्रोषधोपवास में ही आदर का न होना जैसे-किसी के ग्रीष्मऋतु में उपवास की शक्ति क्षीण हो जाने से उत्साह भंग हो गया, केवल प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए उपवास करता है, उत्साहपूर्वक नहीं। और पर्व के दिन का स्मरण नहीं रहना कि आज अष्टमी है कि नहीं। अनादर और अस्मरण ये दो अतिचार सामायिक शिक्षाबत में भी आते हैं। वहां उनका सामायिक से सम्बन्ध है । यहाँ पर प्रोषधोपवास से सम्बन्ध है।
सोमदेवसूरि ने कहा है-बिना देखे, बिना माजित किये किसी भी सावद्य कार्य को करना, बुरे विचार लाना, सामायिक आदि आवश्यक कर्मों को न करना ये सब काम प्रोषधोपवासवत के घातक हैं ।।२०॥११०।।
इदानी वैयावृत्य लक्षणशिक्षाव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयनाह--- दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये ।
अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥२१॥
भोजनादिदानमपि वैयावृत्यमुच्यते । कस्मै दानं ? तपोधनाय तप एव धनं यस्य तस्मै । किविशिष्टाय ? गुणनिधये गुणानां सम्यग्दर्शनादीनां निधिराश्रयस्तस्मै ।