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तथाऽगृहाय भावद्रव्यागाररहिताय । किमर्थं ? धर्माय धर्मनिमित्त । किं विशिष्टं तद्दानं ? अनपेक्षितोपचारोपक्रियं उपचार: प्रतिदानं उपक्रिया मंत्रतन्त्रादिना प्रत्युपकरणं ते न अपेक्षिते येन । कथं तद्दानं ? विधिद्रध्यादिसम्पदा ||२१||
वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रत के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं
( तपोधनाय ) तपरूप धन से युक्त तथा ( गुणनिधये ) सम्यग्दर्शनादि गुणों के भण्डार (अग्रहाय ) गृहत्यागी - मुनीश्वर के लिए ( विभवेन ) विधि द्रव्य आदि सम्पत्ति के अनुसार ( अनपेक्षितोपचार क्रियम् ) प्रतिदान और प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित (धर्मा) धर्म के निमित्त जो ( दानं ) दान दिया जाता है, वह ( वैयावृत्यं) वैयावृत्य कहलाता है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
टीकार्थ-तप ही जिनका धन है तथा सम्यग्दर्शनादि गुणरूप निधि जिनके आश्रित है ऐसे भाव आगार और द्रव्य आगार से रहित मुनीश्वरों के लिए धर्म के निमित्त प्रतिदान और मन्त्रतन्त्रादि प्रति उपकार की भावना की अपेक्षा से रहित आहारादि का दाना वैयावृध कहलाता है
विशेषार्थ - तत्त्वार्थ सूत्र में ( ७१३६ ) कहा है कि विधि द्रव्य दाता और पात्र की विशेषता से दान के फल में विशेषता होती है । अतिथि को सम्यक् अर्थात् निर्दोष विभाग अर्थात् अपने लिये किये गये भोजन आदि का विभाग देना अतिथि संविभागवत है । समन्तभद्रस्वामी ने इसका नाम वैयावृत्य दिया है, इस व्रत का पालन ऐसा करने से अतिथि के न मिलने पर भी
श्रावक को नियम से करना चाहिए। अतिथिदान का फल प्राप्त होता है ।
आचार्य सोमदेवसूरि ने उपासकाध्ययन के तैंतालीसवें कल्प में और आचार्य श्रमितगति ने अपने धावकाचार के नवें परिच्छेद में दानका विस्तार से वर्णन किया है ।
दान देने का उद्देश्य यही होना चाहिए कि इससे रत्नत्रय की वृद्धि होवे, दान के बदले मुनीश्वर हमें कुछ देवें अथवा मन्त्र तन्त्र आदि के द्वारा हमारा कुछ उपकार करें, ऐसी भावना नहीं होनी चाहिए। दान शक्ति के अनुसार देना चाहिए ।
जिनका कोई घर नहीं है जो गुणों से सम्पन्न हैं, ऐसे तपस्वियों को बिना किसी प्रत्युपकार की भावना के अपने सामर्थ्य के अनुसार दान देना उसे वैयावृत्य कहा