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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
से मुक्त होकर तथा शरीरादि में ममत्व त्यागकर प्रोषधोपवास के दिन से पहले के दिन अर्धभाग में उपवास ग्रहण करे और निर्जन वसतिका में जाकर सम्पूर्ण सावद्ययोग को त्यागकर तथा सब इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर कायगुप्ति, मनोगुप्ति, वचनगुप्तिपूर्वक रहे ।
धर्मध्यानपूर्वक दिवस बिताकर संध्याकालीन कृतिकर्म करके पवित्र संस्तर पर स्वाध्यायपूर्वक रात्रि बिताचे । प्रातः उठकर प्रातः कालीन क्रिया करके प्रासुक द्रव्य से जिन भगवान की पूजा करे । इसी विधि से उपवास का दिन और दूसरी रात बिताकर तीसरे दिन का आधा भाग बिलावे । इस तरह जो सम्पूर्ण सावद्य कार्यों को त्याग कर सोलह पहर बिताता है, उसके उस समय निश्चय ही सम्पूर्ण अहिंसावत होता है ।
यह सम्पूर्ण कथन प्राचार्य अमृतचन्द्र का है। अमितगति आचार्य ने भी तदनुसार कथन करते हुए कहा है कि उपवास स्वीकृत करने के दिन दूसरे पहर में भोजन करके आचार्य के पास जाकर भक्तिपूर्वक वन्दना कायोत्सर्ग करे । फिर पञ्चांग प्रणाम करके आचार्य के वचनानुसार उपवास स्वीकार करे, पुनः विधिपूर्वक कायोत्सर्ग करे, पश्चात् आचार्य की स्तुति करके वन्दना करे और दो दिन स्वाध्यायपूर्वक बितावे । आचार्य की साक्षीपूर्वक ग्रहण किया गया उपवास निश्चल रहता है। उपवास में मनवचन- काय से समस्त भोगों और उपभोगों का त्याग करना चाहिए तथा पृथ्वी पर प्रासुक संस्तर बनाकर उस पर सोना चाहिए। असंयमवर्धक समस्त आरम्भ को छोड़ कर मुनि की तरह विरक्त चित्त रहना चाहिए। तीसरे दिन समस्त आवश्यक आदि करके अतिथि को भोजन कराकर फिर भोजन करना चाहिए | इस विधि से किया गया एक भी उपवास पाप को वैसे ही दूर कर देता है जैसे सूर्य अन्धकार को दूर करता है ।
इस तरह सोलह पहर का उपवास करने वाला समस्त पापों से निवृत्त हो जाता है, उसके पूर्णरूप से अहिंसावत होता है । देशव्रती श्रावक के भोगोपभोगमूलक स्थावर जीवों की हिंसा होती है किन्तु उपवास के दिन वह भोगोपभोग-विषयों का त्याग कर देता है, इस प्रकार हिंसादि पापों से रहित प्रोषधोपवास करने वाला व्यक्ति उपचार से महाव्रती अवस्था को प्राप्त कर लेता है । किन्तु प्रत्याख्यानावरण चारित्र मोहनीय का उदय रहने से पूर्ण संयमभाव को प्राप्त नहीं कर सकता || १८ || १०८ ||
अधुना प्रोषधोपवासस्य लक्षणं कुर्वन्नाह