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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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पिबन् अन्यानविदिततत्स्वरूपान् पाययेत् तत् । ज्ञानाध्यानपरो भवतु, ज्ञानपरो द्वादशानुप्राद्युपयोगनिष्ठः ।
अध्रुवावरणे चैव भव एकत्वमेव च । अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवास्रवसंवरी || १॥ निर्जरा च तथा लोकबोधदुर्लभधर्मता । द्वादशैता अनुक्षा भाषिता जिनपुरं गवैः || २ ||
ध्यानपरः आज्ञापायविपाक संस्थानविचयलक्षणधर्मध्याननिष्ठो वा भवतु | किं विशिष्ट ? अतन्द्रालुः निद्रालस्यरहितः ॥ १८॥
अब इनका त्यागकर उपवास के दिन क्या करना चाहिए, यह कहते हैं( उपवसन) उपवास करने वाला व्यक्ति ( सतृष्णः ) उत्कण्ठित होता हुआ ( श्रवणाभ्यां ) कानों से ( धर्मामृत ) धर्मरूपी अमृत को ( पिबतु ) स्वयं पीवे ( वा ) अथवा ( अन्यान् ) दूसरों को ( पाययेत् ) पिलावे (वा) अथवा ( अतन्द्रालु: ) आलस्य रहित होता हुआ ( ज्ञानध्यानपर: ) ज्ञान और ध्यान में तत्पर ( भवतु ) होवे |
टोकार्थ - उपवास करने वाला धर्मरूपी अमृत को कानों से पीवे । धर्म को अमृत कहा है क्योंकि यह समस्त प्राणियों के सन्तोष का कारण है । यदि उपवास करने वाला व्यक्ति वस्तुस्वरूप का ज्ञाता नहीं है तो उत्सुकतापूर्वक अन्य विशिष्टजनों से धर्म के उपदेश को अपने कानों से सुने यदि स्वयं तत्ववेत्ता है तो दूसरों को धर्मोपदेश सुनावे तथा आलस्य प्रमाद छोड़कर ध्यान स्वाध्याय में लीन होते हुए अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्थ, अशुचि, आस्रव संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन बारह भावनाओं के चिन्तन में उपयोग को लगावे अथवा आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय लक्षण रूप धर्मध्यान में तत्पर रहे।
विशेषार्थ- - उपवास का समय अर्थात् सोलहपहर किस प्रकार बिताना चाहिए इसका पूरा विवरण पुरुषार्थसिद्ध पाय में दिया है, उसी को श्रमितगतिप्राचार्य और सुनन्दाचार्य ने थोड़ा विकसित किया है। इन्हीं सबका निचोड़ सागारधर्मामृत में पं० प्रशाधरजी ने दिया है । पुरुषार्थसिद्धय पाय में कहा है- प्रतिदिन स्वीकृत किये गये सामायिक संस्कार को स्थिर करने के लिये दोनों पक्षों के आधे भाग में अर्थात् अष्टमी चतुर्दशी को उपवास अवश्य करे । इसकी विधि इस प्रकार है- समस्त आरम्भ