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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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कर्मों के अभाव से निज शुद्ध चैतन्यस्वरूप की जो अनुभूति होती है उसको स्वभावरूप सुख समझना चाहिए। इनमें से विभावरूप सुख तथा दुःख प्रायः सभी संसारी जीवों के अनुभव में नित्य आने वाले हैं। शुद्ध स्वभावरूप सुख का अनुभव इस जीव को अनादिकाल से अभी तक भी नहीं हुआ है । उसका अनुभव वास्तविक धर्म के प्रकट होने पर ही हुआ करता | किन्तु इस धर्म की उद्भूति भी सांसारिक सुख-दुःख और उसके कारणों में हेयता का प्रत्यय हुए बिना नहीं हो सकती अतएव संसार और उसकी प्रवृत्ति के कारणों में हैयता का प्रत्यय कराते हुए युक्तिपूर्वक वास्तविक सुख के कारणभूत धर्म के स्वरूप एवं भेदों का बोध करा देना इस कारिका का प्रयोजन है । सुख को प्राप्त करने तथा दुःखों से छुटकारा पाने की इच्छा रखते हुए भी स्वरूप और यथार्थ उपाय की अज्ञानता के कारण अभीष्ट लाभ नहीं होने से आकुलित हुए संसारी जीवों को परोपकारिणी बुद्धि से प्र ेरित होकर आचार्य का प्रयोजन इस कारिका के निर्माण में वास्तविक सुख के उपायभूत धर्म से अवगत करा देना ही है ।
सम्यग्दर्शनादि के समूह का नाम धर्म है ।
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इस धर्म की पूर्णता आर्हत्य अवस्था प्राप्त होने पर ही हुआ करती है । जब तक तीनों सर्वांश में पूर्ण नहीं होते तब तक उनमें मोक्षरूप कार्य को सिद्ध करने की समर्थ कारणता भी नहीं आती । अतएव मुमुक्षु का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि जब तक सम्यग्दर्शनादि प्रकट नहीं होते तब तक उनको प्रकट करने का पूर्ण प्रयत्न करे । और प्रकट होने पर उनके प्रत्येक अंश को पूर्णतया निर्मल बनाने का प्रयत्न करे । इसलिए उनको और उनके भेदों अंशों अवस्थाओं एवं उनके बाधक कारण आदि को भी अवश्य जान लेना चाहिए। क्योंकि बिना जाने बाधक कारणों को दूर करने और साधक कारणों को प्राप्त करने का पुरुषार्थं नहीं बनता । ये सम्यग्दर्शनादि ही भव पद्धति को नष्ट करने वाले हैं । और उसके फलस्वरूप नानाविध दुःखों से परिभुक्त करने वाले हैं। इसलिए ये ही वास्तव में धर्म शब्द के वाच्यार्थ हैं और इन्हीं को आचार्य ने यहाँ धर्म शब्द से कहा है ।
तत्र सम्यग्दर्शन स्वरूपं व्याख्यातुमाह
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥
सम्यग्दर्शनं भवति । किं ? 'श्रद्धा' रुचिः केषां ? 'आप्तागमतपोभूतां' वक्ष्यमाणस्वरूपाणां । न चैवं षड्द्रव्य सप्ततत्त्वनवपदार्थानां श्रद्धानभसंगृहीतमित्याशंक