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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार १० ] टोकार्य-तत्त्वार्थश्रद्धानरूप दर्शन, तत्वों की याथास्य प्रतिपत्तिरूप ज्ञान और पाप क्रियानिवृत्तिरूप चारित्र इस रत्नत्रयरूप धर्म के स्वयं आराधक तथा दूसरे जीवों को उसका उपदेश देने वाले होने से जिनेन्द्र भगवान धर्म के ईश्वर कहलाते हैं । उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ही धर्म कहा है क्योंकि इन तीनों की एकता ही जीवों को संसार के दुःखों से निकालकर मोक्ष के उत्तम सुख में पहुँचा देती है। इन सम्यग्दर्शनादि तीनों से विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों संसारभ्रमण के मार्ग हैं । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनादि के प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शनादि संसार के ही मार्ग हैं इससे यह सिद्ध हुआ कि रत्नत्रय ही स्वर्ग और मोक्ष का साधक होने से धर्मरूप है। विशेषार्थ-यह सभी समझ सकते हैं कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति जिस कारण से हुआ करती है उस कारण के अभाव में उस कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । सृष्टि अथवा संसार का स्वरूप और उसके कारण अनुभव सिद्ध और दृष्टिगोचर भी हैं। भव शब्द संसार या सृष्टि का पर्यायवाची है। उसके मूलभूत या असाधारण कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं, जिनका अनादिकाल से यह जीव अनुभव कर रहा है । यह जन्म-मरण आदि के दुःखों से अथवा तापत्रय से रंचमात्र भी उन्मुक्त नहीं हो सका है। अतएव स्पष्ट है कि सभी तरह के दुःखों से छुटकारा पाने का वास्तविक उपाय इससे विपरीत ही होना चाहिए। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये ही धर्म हैं और ये ही संसार एवं संसार के दुःखों से जीव को छुड़ाकर उसे उत्तम सुखरूप अवस्था में पहुंचाने की सामर्थ्य रखते हैं । संसार और उसके कारण दुःख रूप हैं, यह बात प्रायः सभी मतवालों ने स्वीकार की है । और तो क्या जीव के अस्तित्व और परलोक को नहीं मानने वाले भी संसार का परित्याग कर प्रवज्या धारण करने का उपदेश देते हैं और परिव्राजक होते हए देखे जाते हैं। यदि उन्हें संसार सुखरूप प्रतीत होता तो वे स्वयं क्यों दीक्षित होते ? दुःख तथा सुख जीव की अवस्थाएं हैं। इनका जीव के साथ जितना अति निकट सम्बन्ध है उतना अन्य किसी भी पदार्थ के साथ नहीं है। दुःख जीव का भाव होकर भी विभावरूप ही है । तथा सुख रूपभाव स्वभाव भी है और विभाग भी है। सातावेदनीय पुण्य कर्मों के उदय से इप्ट विषयों की प्राप्ति, अनुभूति होती है, वह विभावरूप सुख है। तथा किसी विवक्षित कर्म के या किन्हीं कर्मों के अथवा समस्त
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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