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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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संसार के प्राणियों को वास्तविक हित से वंचित रखने वाली दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं । एक अन्तरंग और दूसरी बहिरंग । मन-वचन-काय की अपने-अपने इष्ट अनिष्ट विषयों में जो प्रवृत्ति है वह उसके अहित की बाह्य कारण है । और इन विषयों मैं जीव की जो इष्ट-अनिष्ट कल्पना होती है वह अन्तरंग कारण है । मूलभूत यह अन्तरंग कारण भी और कुछ नहीं है जीव का अतत्त्व श्रद्धान ही है । अनादिकाल से जीव के साथ जो मोह हुआ है, इसके से कीट को तत्त्व का समीचीन श्रद्धान नहीं होता, अतत्व श्रद्धान को ही मिथ्यात्व कहते हैं । इस प्रकार अनादि अथवा सादि मोह, क्षोभ भाव ही जीव के अहित के कारण हैं । निसर्गत: परोपकार में निरत तत्त्वज्ञानी इसी दुःख अथवा अहित के वास्तविक कारण की निवृत्ति के लिए उपदेश दिया करते हैं । उसी का नाम धर्मोपदेश है || २ ||
अथैवंविधधर्म स्वरूपतां कानि प्रतिपद्यन्त इत्याह
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वराः विदुः । rate प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥
दृष्टिश्च तत्त्वार्थ श्रद्धानं ज्ञानं च तत्त्वार्थ प्रतिपत्तिः, वृत्तं चारित्रं पाप क्रियानिवृत्तिलक्षणं । सन्ति समीचीनानि च तानि दृष्टिज्ञानवृत्तानि च । 'धर्म' उक्तस्वरूपं । 'विदु:' वदन्ति प्रतिपादयन्ते । के ते ? 'धर्मेश्वरा:' रत्नत्रय लक्षणधर्मस्य ईश्वराः अनुष्ठातृत्वेन प्रतिपादकत्वेन च स्वामिनो जिननाथाः । कुतस्तान्येव धर्मो न पुनर्मिथ्यादर्शनादीन्यपीत्याह - यदीयेत्यादि । येषां सद्दृष्ट्यादीनां सम्बन्धीनि यदीयानि तानि च तानि प्रत्यनीकानि च प्रतिकूलानि मिथ्यादर्शनादीनि 'भवन्ति' सम्पद्यन्ते । का ? 'भवपद्धति : ' संसारमार्गः । अयमर्थः यतः सम्यग्दर्शनादिप्रतिपक्षभूतानि मिथ्यादर्शनादीनि संसारमार्गभूतानि । अतः सम्यग्दर्शनादीनि स्वर्गापवर्गसुखसाधकत्वाद्ध में रूपाणि सिद्धयन्तीति ॥ ३ ॥ अब इस प्रकार का धर्म कौनसा है, यह कहते हुए धर्म का वाच्यार्थ बतलाते हैं
सद्दष्टिज्ञानेति ( धर्मेश्वराः ) धर्म के स्वामी जिनेन्द्रदेव ( तानि ) उन ( सहष्टिज्ञानवृत्तानि ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ( धर्म ) धर्म ( विदुः ) जानते हैं - कहते हैं ( यदीयप्रत्यनीकानि ) जिनके विपरीत - मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ( भवपद्धति : ) संसार के मार्ग ( भवन्ति ) होते हैं ।