SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार घर में ही प्रतिमा के सम्मुख होकर अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्व मुख या उत्तर मुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिन बिम्ब, पंचपरमेष्ठी और जिनालयों की जो नित्य त्रिकाल-वन्दना की जाती है वह सामायिक है। जो श्रावक कायोत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभ को, शत्रु-मित्र को, संयोग-वियोग को, तृण-कंचन को, चन्दन और कुठार को समभाव से देखता है तथा मन में पंच नमस्कार मंत्र को धारण करके उत्तम अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त अर्हन्त के स्वरूप का और सिद्धों के स्वरूप का ध्यान करता है, अथवा संवेग सहित निश्चल होकर क्षणभर उत्तमध्यान करता है उसके उत्तम सामायिक होती है ।।१२।। १०२।। तथा सामायिकं स्वीकृतवन्तो ये तेऽपरमपि किं कुर्वन्तीत्याह शीतोष्णदेशमशक परीषह मुपसर्गमपि च मौनधराः । सामायिक प्रतिपन्ना अधि कुर्बीरन्नचलयोगाः ।।१३।। अधिकरिन सहेरनित्यर्थः। के ते? सामायिक प्रतिपन्ना: सामायिक स्वीकृतवन्तः । कि विशिष्टाः सन्तः ? अचलयोगाः स्थिरसमाधयः प्रतिज्ञातानुष्ठानापरित्यागिनो वा । तथा मौनधरास्तत्पीडायां सत्यापि क्लीबादिवचनानुच्चारकाः दैन्यादिवचनानुच्चारकाः। कर्माधकुरिन्नित्याह-शीतेत्यादि-शीतोष्णदंशमशकानां पीडाकारिणां तत्परि समन्तात् सहनं तत्परीषहस्तं, न केवलं तमेव अपि तु उपसर्गमपि च देवमनुष्यतिर्यवकृतं ।।१३॥ ____सामायिक को स्वीकृत करने वाले जो गृहस्थ हैं वे और क्या करते हैं, यह कहते हैं [ सामायिकं ] सामायिक को [ प्रतिपन्नाः } स्वीकृत करने वाले गृहस्थ अचलयोगा:] स्थिर समाधि अथवा गृहीत अनुष्ठान को न छोड़ते हुए [ मौनधराः ] मौनधारी होकर [ शीतोष्णदंशमशकपरीषहं ] शीत, उष्ण तथा दंशमशक परीषह को [च] और [उपसर्गमपि] उपसर्ग को भी [अधीकुर्वीरन] सहन करें । टीकार्थ-जिन्होंने सामायिक को स्वीकार किया है ऐसे गृहस्थ ध्यान में स्थिर होकर ध्यान करने की प्रतिज्ञा से चलायमान नहीं होते हुए तथा मौनव्रतधारी बनकर शीत-उष्ण, डांस-मच्छर आदि की पीड़ाकारक परीषह को तथा देव-मनुष्य
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy