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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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( तदा ) उस समय (गृही ) गृहस्थ ( चेलोपसृष्टमुनिरिव ) उपसर्ग के कारण वस्त्र से वेष्टित मुनि के समान ( यतिभावं ) मुनिपने को (याति) प्राप्त होता है ।
टीकार्थ -- जिस समय गृहस्थ सामायिक करता है उस काल में उसके खेती आदि के आरम्भ से सहित सभी बहिरंग अन्तरंग तथा चेतन-अचेतन परिग्रह नहीं होते हैं । इसलिए वह गृहस्थ सामायिक अवस्था में उपसर्ग से वस्त्राच्छादित मुनि के समान मुनिपने को प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ - सामायिक के काल में न कोई आरम्भ होता है और न पहने हुए वस्त्र के सिवाय कोई परिग्रह होता है । उस समय हिंसादि समस्त पापों का त्याग होता है । इसलिए उस समय गृहस्थ उस मुनि के तुल्य होता है जिस पर किसी ने वस्त्र लपेट दिया हो । जैसे- सामायिक के काल में कोई दुष्ट मनुष्य वस्त्रों को खोलने लगे तो भी वह चलायमान नहीं होता, उसकी उस समय की अवस्था उस मुनि के समान होती है जिस पर किसी दुष्ट ने उपसर्ग करने के लिए वस्त्र ओढ़ा दिया हो । उस समय यद्यपि वह बाहर में वस्त्र ओढ़े हुए है किन्तु उस वस्त्र के प्रति उसका ममत्वभाव नहीं है । इसी प्रकार वह गृहस्थ यद्यपि वस्त्र पहने हुए है परन्तु उन वस्त्रों के प्रति उसका ममत्व भाव नहीं है ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने भी राग-द्व ेष को त्यागकर समस्त द्रव्यों में साम्यभाव धारण करके बार-बार सामायिक करने का विधान बताया है। क्योंकि यह सामायिक आत्म-तत्त्व की उपलब्धि की मूल है । अर्थात् आत्मतत्त्व की उपलब्धि का मूल कारण सामायिक | प्रातः और सन्ध्याकाल में तो सामायिक अवश्य करनी चाहिए। अन्य समय में भी करने में कोई हानि नहीं है, लाभ ही है । यह भी कहा है कि यद्यपि सामायिक करने वाले गृहस्थ के चारित्रमोह का उदय होता है, फिर भी उस समय में समस्त सावद्ययोग का त्याग होने से उसे महाव्रत की उपलब्धि होती है। इस प्रकार सभी आचार्यों ने आत्मध्यान को सामायिक कहा है । किन्तु सोमदेवसूरि ने आप्तसेवा के उपदेश को समय और उसमें किये जाने वाले कार्य को सामायिक कहा है । श्राशावरजी ने उसे व्यवहार सामायिक कहा है । उपासकाध्ययन में सामायिकव्रत के अन्तर्गत पूजाविधान का विस्तार से वर्णन है । आचार्य वसुनबी ने भी दोनों प्रकारों को सामायिक कहा है। उन्होंने लिखा है कि शुद्ध होकर चैत्यालय में अथवा अपने