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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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विशेषार्थ-जिनागम में सामायिक और सामयिक दोनों शब्द प्रचलित हैं। उनमें सामयिक शब्द सम और आय शब्दों के मेल से बना है। 'सम' अर्थात् राग-द्वेष से विमुक्त होकर जो 'आय' अर्थात् ज्ञानादिक का लाभ होता है जो कि प्रशम सुखरूप है, उसे समाय कट्ले हैं । सपाय जिसमा प्रयोजन है वह सामायिक है। अर्थात् रागद्वेष के कारण उपस्थित होने पर या जो पदार्थ राग-द्वेष के कारण हैं, उनमें मध्यस्थता रखना, राग-द्वेष नहीं करना सामायिक है । अथवा जिन भगवान की सेवा-उपासना के उपदेश को समय कहते हैं। उसमें नियुक्त कर्म को सामायिक कहते हैं। इस प्रकार व्यवहार से जिन भगवान का अभिषेक, पूजा, स्तुति, जप आदि सामायिक है। और निश्चय से अपनी आत्मा का ध्यान ही सामायिक है । इस प्रकार सामायिकरूपत्त को सामायिकवत कहते हैं । यह सामायिक एकान्त स्थान में की जाती है सामायिक करने वाला उस समय समस्त आरम्भ और परिग्रह के आग्रह से रहित होता है । मुनिव्रत में सदा समता भाव धारण करना पड़ता है, इसलिए मुनियों के पांच प्रकार के चारित्र में सामायिक शब्द का प्रयोग किया गया है। परन्तु गृहस्थ सदाकाल समता धारण नहीं कर सकते अतः उन्हें दिन में दो बार अथवा तीन बार दो घड़ी चार घड़ी अथवा छह घड़ी के लिए समस्त पापों का त्याग कर समताभाव धारण करना चाहिए । समय की अवधि से सहित होने के कारण उसकी यह क्रिया सामयिक शिक्षाव्रत कहलाती है।' वह सामयिक के काल तक मध्यस्थ रहता है, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, संयोग, वियोग आदि इष्ट-अनिष्ट में हर्ष, विषाद नहीं करता। इस तरह यहां पर सामयिकशिक्षाव्रत से प्रयोजन है ॥७॥१७॥
आसमयमुक्तीत्यत्र यः समयशब्द: प्रतिपादितस्तदर्थं ध्याख्यातुमाह-- मर्धरूहमष्टिवासोबन्धं पर्युकबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥८॥
समयज्ञाः आगमज्ञाः । समयं जानन्ति । किं तत् ? मूर्धरूहमुष्टिवासोबन्धं, बन्धशब्द: प्रत्येकमभिसम्बद्धयते मूर्धरूहाणां केशानां बन्ध, बन्धकालं समयं जानन्ति । तथा मुष्टिबन्धं वासोबन्धं वस्त्रग्रन्थि पर्यंकबन्धनं चापि उपविष्टकायोत्सर्गमपि च स्थानमूर्वकायोत्सर्ग उपवेशनं वा सामान्येनोपविष्टावस्थानमपि समयं जानन्ति ।।८।।
आसमयमुक्ति-यहां पर जो समय शब्द कहा है उसका व्याख्यान करने के लिए कहते हैं