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रत्लकारल्ड श्रावकाचार
[ २२५ लिए खेत के चारों तरफ बाड़ लगाना आवश्यक है, उसी प्रकार व्रतों की रक्षा के लिये शील भी अत्यावश्यक है । अमृतचन्द्राचार्य ने भी यही कहा है कि जैसे चार दीवारी नगर की रक्षा करती है वैसे ही सप्त शील व्रतों की रक्षा करते हैं। अत: सातों शील अणुव्रतों के रक्षक हैं ।
स्थिति यह है कि दिग्वत और अनर्थदण्डव्रत को सब आचार्यों ने गुणवत माना है तथा सामायिक, प्रोषधोपवास और अथितिसंविभाग को वसुनन्दी के सिवाय सबने शिक्षाप्रत माना है । कुन्दकुन्द स्वामी ने देशावकाशिक का वर्णन गुणवतों में किया है। वे सल्लेखना को शिक्षाव्रत में लेते हैं। किन्तु अन्य आचार्य इसमें सहमत नहीं हैं क्योंकि सल्लेखना तो मरण के समय ली जाती है और शिक्षाव्रत सदा धारण किया जाता है । इसी दृष्टि से अन्य आचार्यों ने भी बारह व्रतों के अतिरिक्त सल्लेखना का वर्णन किया है। कुन्दकुन्द स्वामी का अभिप्राय सल्लेखना की भावना से जान पड़ता है, अर्थात् शिक्षावती की ऐसी भावना रहनी चाहिए कि मैं जीवन के अन्त में सल्लेखना मरण करू', ऐसी भावना सदा रखी जा सकती है। इसी प्रकार समन्तभद्रस्वामी ने भोगोपभोगनत को गुणवतों में लिया है । एक मत भोगोपभोगपरिमाण को गुणव्रत और देशव्रत को शिक्षाव्रत मानता है। इनमें से देशव्रत कुछ समय के लिए ही होता है। किन्तु भोगोपभोगपरिमाणात जीवन पर्यन्त के लिए भो होता है ।।१।।११।।
तत्र देशावकाशिकस्यतावल्लक्षणंदेशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेनवेशस्य ।। प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ॥२॥
देशावकाशिकं देशे मर्यादीकृतदेशमध्येऽपि स्तोकप्रदेशेऽवकाशो नियतकालमवस्थानं सोऽस्यास्तीति देशावकाशिकं शिक्षाव्रतं स्यात् । कोऽसौ ? प्रतिसंहारो व्यावृत्तिः । कस्य ? देशस्य । कथंभूतस्य ? विशालस्य बहो: । केन ? कालपरिच्छेदनेन दिवसादिकालमर्यादया । कथं ? प्रत्यहं प्रतिदिनं । केषां ? अणुगताना अणूनि सूक्ष्माणि अतानि येषां तेषां श्रावकाणामित्यर्थः ।।२।।
अब देशावकाशिक शिक्षाबत का लक्षण कहते हैं
(अणुनतानां) अणुव्रत के धारक श्रावकों का ( प्रत्यहं ) प्रतिदिन ( कालपरिच्छेदनेन) समय की मर्यादा के द्वारा ( विशालस्य ) विस्तृत ( देशस्य ) देश का (प्रतिसंहारः) संकोच किया जाना (देशावकाशिक) देशावकाशिकनत (स्यात्) होता है ।