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________________ २२६ ] रत्नकरपड श्रावकाचार टोकार्थ-मर्यादित देश में भी नियतकाल तक स्तोक स्थान में रहना देशावकाश है । यह देशावकाश जिस व्रत का प्रयोजन है वह देशावकाशिक शिक्षानत है । दिग्बत में जीवनपर्यन्त के लिए जो विशाल क्षेत्र की सीमा बांधी थी, उसमें भी एक दिन, एक पहर आदि काल की मर्यादा लेकर और भी कम करना वह देशावकाशिक शिक्षाग्रत कहलाता है। यह व्रत अणुनती श्रावकों के होता है । 'अणूनि सूक्ष्माणि अतानि येषां ते अणुअताः तेषाम्' इस प्रकार समास करने से अणुनतधारी श्रावक ही होते हैं । विशेषार्थ- देशनती श्रावकों को प्रतिदिन कुछ समय की मर्यादा लेकर अपने जाने-आने की सीमा निर्धारित करनी चाहिए। क्योंकि दिग्नत में जो क्षेत्र की मर्यादा होती है वह विस्तृत होती है और जीवनपर्यन्त के लिए होती है। इसलिए अपनी आवश्यकता के अनुसार बह विशाल सीमा भी प्रतिदिन संकुचित करनी चाहिए ।।२।१२।। अथ देशावकाशिकस्य का मर्यादाइत्याहगृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च । वेशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥३॥ 'तपोवृद्धाश्चिरन्तनाचार्या गणधरदेवादयः। सीम्नां स्मरन्ति मर्यादाः प्रतिपाद्यन्ते । सोम्नामित्यत्र 'स्मृत्यर्थदयीशांकर्म' इत्यनेन षष्ठी। केषां सीमाभूतानां ? गृहहारिग्रामाणां हारिः कटकं 1 तथा क्षेत्रनदीदावयोजनानां च दावो वनं । कस्यतेषां सोमाभूतानां ? देशावकाशिकस्य देशनिवृत्तिन्नतस्य । देशावकाशिकात में किस प्रकार मर्यादा की जाती है, यह कहते हैं ( तपोवृद्धा: ) गणधरदेवादिक चिरन्तन आचार्य ( गृहहारिनामाणां ) घर, छावनी, गाँव (च) और (क्षेत्रनदीदावयोजनानां) खेत, नदी, वन तथा योजनों को { देशाबकाशिकस्य ) देशावकाशिक शिक्षाघ्रत की ( सीम्नां ) सीमा ( स्मरन्ति ) स्मरण करते हैं। टोकार्थ—'तपोभिः वृद्धाः तपो बुद्धाः' इस निरुक्ति के अनुसार तप से वृद्ध चिरकालीन आचार्य गणधर देवादिक का ग्रहण होता है । उन्होंने देशावकाशिकात की सीमा निर्धारित करते हुए घर, छावनी, गांव, खेत, नदी, बन और योजनों की सीमा
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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