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रत्नकरण्ड श्रावकाचार च पल्यङ्कादि, स्थानं च पवित्राङ्गरागश्च पवित्रश्चासावङ्गरागश्च कूकुमादिविलेपनं । उपलक्षणमेतदञ्जनतिलकादीनां पवित्रविशेषणं दोषापनयनाथं तेनौषधाद्यङ्गरागो निरस्तः । कुसुमानि च तेषु विषयभूतेषु । तथा ताम्बूलं च वसनं च वस्त्रं भूषणं च कटकादि मन्मथश्च कामसेवा संगीतं च गीतनृत्यवादित्रत्रयं गीतं च केवलं नत्यवाद्य रहितं तेषु च विषयेषु अद्येत्यादिरूपं कालपरिच्छित्त्या यत्प्रत्याख्यान सनियम इति व्याख्यातम् ।।४२॥४३॥
भोगोपभोगपरिमाणन्नत में परिमितकालवाला जो नियमरूप त्याग है उसे दिखलाते हैं
[भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु] भोजन, सवारी, शयन, स्नान, पवित्र अंगविलेपन, पुष्प [ ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु ] पान, वस्त्र, आभूषण, कामसेवन, संगीत और गीत के विषय में, [अद्य] आज, [दिवा] एक दिन [रजनी] एक रात [वा] अथवा [पक्षः] एक पक्ष [मासः] एक माह तथा] और [ ऋतुः । एक ऋतु-दो माह [वा] अथवा [ अयनं ] एक अयन छह माह [ इति ] इस प्रकार [कालपरिच्छित्या] समय के विभागपूर्वक [ प्रत्याख्यानं | त्याग करना [ नियम: ] नियम [भवेत] होता है।
टीकार्थ-कालको मर्यादा लेकर जो प्रत्याख्यान-त्याग किया जाता है वह नियम है । भोजन का अर्थ तो प्रसिद्ध है ही। घोड़ा आदि को वाहन कहते हैं । पलंग
आदि शयन हैं। स्नान का अर्थ भी प्रसिद्ध ही है। केशर आदि के विलेपन को पवित्रांगराग कहते हैं । यह अंगराग अजनतिलक आदि का उपलक्षण है। अंगराग के साथ जो पवित्र विशेषण है वह दोषों को दूर करने के लिए दिया है । इससे सदोष औषधि और अंगराग का निराकरण हो जाता है । कुसुम-फूल । ताम्बूल-पान । वसनवस्त्र । कटक-आभूषण को कहते हैं। कामसेवन को मन्मथ कहते हैं। जिसमें गीत नृत्य और बादित्र तीनों हों वह संगीत कहलाता है। जिसमें मात्र गीत ही हो, नत्य बादित्र न हो वह गीत कहलाता है। इन सभी के विषय में समय की मर्यादा लेकर जो त्याग किया जाता है वह नियम कहलाता है। प्रवर्तमान समय में एक घडो, एक पहर आदि काल की मर्यादा लेकर त्याग करना, जैसे आज का त्याग है। दिन-रात तो प्रसिद्ध हैं । पन्द्रह दिन को पक्ष कहते हैं । तीस दिन को महीना कहते हैं । दो महीने की एक ऋतु होती है । छह मास को अयन कहते हैं । इस प्रकार समय की अवधि रखकर भोजन आदि का त्याग करना नियम कहलाता है।