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रहनकरण्ड श्रावकाचार
[ २१९ आगे बह परित्याग दो प्रकार का होता है यह कहते हैं
{ भोगोपभोगसंहारात ) भोग और उपभोग के परिमाण का आश्रयकर ( नियमः ) नियम (च) और ( यमः ) यम ( द्वधा ) दो प्रकार से ( विहिती ) व्यवस्थापित हैं-प्रतिपादित हैं। उनमें (परिमितकाल:) जो काल के परिमाण से युक्त है वह (नियमः) नियम है और जो ( यावज्जीवं ) जीवनपर्यन्त के लिए ( ध्रियते ) धारण किया जाता है वह (यम:) यम कहलाता है।
टोकार्थ-भोग और उपभोग का परिमाण यम और नियम के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। जो परिमाण परिमितकाल के लिए अर्थात समय की मर्यादा लेकर किया जाता है, वह नियम कहलाता है । तथा जो जीवन पर्यन्त के लिए धारण किया जाता है वह यम कहा जाता है ।
विशेषार्थ-व्रती मनुष्य को सघात, बहुधात, प्रमादवर्धक, अनिष्ट और अनुपसेव्य इन पांच प्रकार के अभक्ष्यों का तो जीवनपर्यन्त के लिये ही त्याग कर देना चाहिए। यावज्जीवनत्याग को यम कहते हैं। तथा जो अभक्ष्य की कोटि में नहीं हैं उनका भी अपनी आसक्ति को कम करने के लिए और देश-काल की योग्यता को देखते हए यम अथवा नियम रूप से त्याग करना चाहिए। इस प्रकार त्याग दो प्रकार का होता है ।।४१॥८॥
तत्र परिमितकालेतत्संहारलक्षण नियमं दर्शयन्नाहभोजनवाहनशयनस्नानपवित्रांगरागकुसुमेषु । ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु ॥४२॥४३।। अद्य दिवा रजनी वा पक्षोमासस्तथ रयनं वा । इति कालपरिच्छित्त्या प्रत्याख्यानं भवेनियमः ॥४३॥ ४४1]
युगलं । नियमो भवेत् । किं तत् ? प्रत्याख्यानं । कया ? कालपरिच्छित्या। तामेव कालपरिच्छिति दर्शयलाह-अद्येत्यादि, अद्येत्ति । प्रवर्तमानघटिकाप्रहरादि लक्षणकालपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं । तथा दिवेति । रजनी रात्रिरिति वा । पक्षइति वा। मास इति वा । ऋतुरिति वा मासद्वयं | अयनमिति वा षण्मासा। इत्येवं कालपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं । केष्वित्याह-भोजनेत्यादि भोजनं च, वाहन च घोटकादि, शयनं