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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
त्याग करना चाहिए। क्योंकि अनिष्टपने और अनुपसेव्यपने के कारण छोड़ने योग्य विषय से अभिप्रायपूर्वक निवृत्ति होने को व्रत कहते हैं।
विशेषार्थ-समन्तभद्रस्वामी ने कहा है कि जो अनिष्ट हो उसका व्रत लेवे अर्थात् त्याग कर देवे । क्योंकि प्रत्येक मनुष्य की स्वास्थ्य प्रकृति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, किसी मनुष्य के लिये कोई वस्तु लाभदायक है तथा किसी अन्य के लिए बही हानिकारक है । इस प्रकार जो बस्तु भक्ष्य है, स-स्थावर जीवों के घात से रहित है किन्तु स्वास्थ्य के लिए हानि का कारण है, उस अनिष्ट वस्तु को व्रती मानव छोड़ देवे ।
पूज्यपाद स्वामी ने भी रत्नकरण्ड के अनुसार ही कथन किया है। किन्तु अनिष्ट को स्पष्ट करते हुए कहा है कि सवारी और आमरण आदि में मुझे इतना ही इष्ट है, इस तरह अमिष्ट से निवृत्त होना चाहिए । यह निवर्तन कुछ काल के लिए भी होता है और जीवनपर्यन्त के लिए भी होता है । चारित्रसार में पूज्यपाद का ही अनुसरण है । सर्वार्थसिद्धि में अनुपसेव्य की चर्चा नहीं है। बारित्रसार में चित्रविचित्र वेष, वस्त्र आभरण आदि को अनुपसेध्य कहा है। अमृत चन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्धय पाय में अनन्तकाय को और मक्खन को त्याज्य कहा है । और लिखा है कि जो परिमित भोगों से सन्तुष्ट होकर बहुत से भोगों को छोड़ देता है वह बहुतसी हिंसा से विरत होता है । अत: उसके विशिष्ट अहिंसा होती है। सोमदेव ने भी अपने उपासकाध्ययन में प्याज, केतकी और नीम के फूल तथा सूरण को आजन्म त्याज्य कहा है, इस प्रकार जो त्यागने योग्य वस्तु का अभिप्रायपूर्वक त्याग करता है, वही व्रती कहलाता है ॥ ४० ।। ८६ ।।
तच्चद्विधाभिद्यतइति-- नियमो यमश्च विहितो, द्वधा भोगोपभोगसंहारात् । नियमः परिमितकालो, यावज्जीवं यमो धियते ॥४॥४217
'भोगोपभोगसंहारात्' भोगोपभोगयोः संहारात् परिमाणात् तमाश्रित्य । 'द्वैधा विहितौ' द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां द्वधां व्यवस्थापितो। को ? 'नियमो यमश्चेत्येतो । तत्र को नियमः कश्च यम इत्याह-नियमः' 'परिमितकालो' वक्ष्यमाणः परिमितः कालो यस्य भोगोपभोग संहारस्य स नियमः । 'यमश्च यावज्जीवं ध्रियते' ॥४१॥