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किमर्थं ? ' प्रमादपरिहृतये' माता भार्येति विवेकाभावः प्रमादस्तस्य परिहृतये परिहारार्थं । कैरेतद्वर्जनीयं ? 'शरणमुपयातैः' शरणमुपगतैः । को ? 'जितचरणों' श्रावस्तत्याज्यमित्यर्थः || ३८ ||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
मधु आदिक पदार्थ भोगरूप होने पर भी त्रसजीवों के घातका कारण होने से अणुव्रतधारियों के द्वारा छोड़ने योग्य हैं, यह कहते हैं
( जिनचरणी ) जिनेन्द्र भगवान के चरणों को ( शरणम् ) शरण को (उपयातैः ) प्राप्त हुए पुरुषों के द्वारा (सहति परिहरणार्थं ) स जीवों की हिंसा का परिहार करने के लिए ( क्षोद्र) मधू और (पिशितं ) मांस (च) तथा ( प्रमादपरिहृतये ) प्रमाद का परिहार करने के लिए ( मद्यं ) मदिरा ( वर्जनीयं ) छोड़ने योग्य है ।
टोकार्थ - जिनेन्द्र भगवान के चरणों की शरण लेने वाले श्रावक को द्वीन्द्रि यादि त्रस जीवों की हिंसा से बचने के लिए मधु और मांस का त्याग करना चाहिए । तथा प्रमाद से बचने के लिए मदिया-शब काम करना चाहिए। यह माता है या स्त्री इस प्रकार के विवेक के अभाव को प्रमाद कहते हैं ।
विशेषार्थ — ग्रन्थकार ने भोगोपभोग परिमाणव्रत का कथन करते हुए कहा है कि जिन्होंने जिनेन्द्र भगवान के चरणों की शरण ली है, उनको सघात से बचने के लिए मांस और मधु तथा प्रमाद से बचने के लिए मद्यपान छोड़ना चाहिए । पूज्यपाद स्वामी ने भी मधु, मद्य और मांस को सदा छोड़ने के लिए कहा है । चारित्रसार में भी ऐसा ही कहा गया है । किन्तु अमृतचन्द्राचार्य ने अपने पुरुषार्थ सिद्धय पाय में भोगोपभोगपरिमाणव्रती से इस तरह का कोई त्याग नहीं कराया है । और यह उचित भी है। क्योंकि प्रारम्भ में ही जैनधर्म धारण करने वाले को अष्टमूलगुणों के धारण करते समय ही मद्य, मांस और मधु का त्याग हो जाता | क्षुद्रा मधुमक्खी को कहते हैं, उसके द्वारा रचा हुआ पदार्थ क्षोद्रया मधु कहलाता है । इसमें अनन्त स जीव उत्पन्न होते रहते हैं । और पिशित-मांस द्वीन्द्रियादिक जीवों का कलेवर है इसकी कच्ची और पक्की सभी अवस्थाओं में अनन्त त्रस जोव उत्पन्न होते रहते हैं, उसके सेवन करने से उन सभी जीवों का घात होता है । इसी प्रकार मद्य भी श्रसहिंसा का कारण है और उसके सेवन से हित-अहित का विवेक समाप्त हो जाता है, इसलिए श्रावक को इन सभी को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ना चाहिए ||३८||८४||