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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अथ कोभोगः कश्चोपभोगोयत्परिमाणं क्रियते इत्याशंक्याहभुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पाञ्चेन्द्रियो विषयः ॥३७॥3८11
पंचेन्द्रियाणामयं 'पाञ्चेन्द्रियो' विषयः । 'भुक्त्वा' 'परिहातव्य'स्त्याज्यः स 'भोगो ऽशनपुष्पगन्धविलेपनप्रभृतिः । यः पूर्व भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः स 'उपभोगों' वसनाभरणप्रभृतिः वसनं वस्त्रम् ।।३७।।
अब भोग क्या है ? और उपभोग क्या है ? जिसका कि परिमाण किया जाता है ? ऐसी आशंका होने पर उनके लक्षण कहते हैं
( अशनवसनप्रभृतिः ) भोजन और वस्त्र को आदि लेकर ( पाञ्चेन्द्रियः ) पञ्चेन्द्रियों सम्बन्धी जो (विषयः) विषय (भुक्त्वा) भोगकर (परिहातव्यः) छोड़ देने के योग्य है वह (भोग :) भोग है (च) और जो (भुक्त्वा) भोगकर ( पुनः भोक्तव्यः ) पुनः भोगने योग्य है वह (उपभोगः) उपभोग है।
टोकार्थ-जो पदार्थ एक बार भोगकर छोड़ दिये जाते हैं वे पुनः काम में नहीं आते, ऐसी भोजन पुष्प गन्ध और विलेपन आदि बस्तुएँ भोग कहलाती हैं तथा जो पहले भोगी हुई वस्तु बार-बार भोगने में आवे, वह उपभोग है जैसे--वस्त्र, आभूषण आदि । इन भोग और उपभोग की वस्तुओं का नियम करना भोगोपभोग परिमाणनत कहलाता है।
विशेषार्थ-'भज्यते सकृत् सेव्यते इति भोगः' जो एक बार सेवन में आधे, वह भोग है जैसे भोजनादि । और 'उपभुज्यते भूयो भूयः सेव्यते स उपभोगः' जो अनेक बार सेवन में आये, वह उपभोग है जैसे-वस्त्राभरण आदि ।।३७।।३।।
मध्वादिर्भोगरूपोऽपि त्रसजन्तुवधहेतुत्वादणुव्रतधारिभिस्त्याज्य इत्याह
सहतिपरिहरणार्थं क्षौद्र पिशितं प्रमावपरिहतये । मद्यं च वर्जनीय जिनचरणौ शरणमुपयातः ॥३॥38॥
'वर्जनीय' । किं तत् ? 'क्षौद्र" मधु । तथा 'पिशितं' । किमर्थं ? 'सहतिपरिहरणार्थ' त्रसानां द्वीन्द्रियादीनां हतिबंधस्तत्परिहरणार्थ । तथा 'मद्यं च' वर्जनीयं ।