________________
'रत्नपारसन श्रावकाचार
[ २१३ पाँचों इन्द्रियों के विषयभूत जो पदार्थ हैं वे भोग-उपभोग नाम से कहे जाते हैं । विषयभोग की तीव्र अभिलाषारूप राग से विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ती है । उस आसक्ति को कम करने के लिये व्रती मनुष्य अभक्ष्य, अनुपसेव्य वस्तुओं का तो जीवनपर्यन्त के लिये त्याग करता है । और जो भक्ष्य तथा उपसेव्य हैं उनका जीवनपर्यन्त के लिए या कुछ काल के लिए त्याग करता है। सघात, बहुघात, प्रमादविषय अनिष्ट और अनुपसेव्य इन पांच प्रकार के अभक्ष्य पदार्थों के त्यागरूप व्रतों का भी अन्तर्भाव इस व्रत में हो जाता है। भोगोपभोग परिमाणवती को मांस, मधु और मदिरा की तरह जिनमें अस जीवों का घात होता है या बहुत जीवों का घात होता हो या जिसके सेवन से प्रमाद सताता हो, ऐसे समस्त पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए और जिसमें त्रस घात आदि नहीं होता हो किन्तु अपने को इष्ट नहीं है या प्रकृति के अनुकूल नहीं है एवं उच्च कुल वालों के सेवन के अयोग्य हैं, उन्हें भी छोड़ना चाहिए क्योंकि व्रत से इष्ट फल की प्राप्ति होती है ।
पं० आशाधरजी ने कहा है कि जिस प्रकार सघात का आश्रय होने से मांस त्यागा जाता है, बहुघात का आश्रय होने से मधु का त्याग किया जाता है और प्रमाद का आश्रय होने से मद्य त्यागा जाता है। वैसे ही जिसमें सघात आदि हो उन अन्य पदार्थों को भी छोड़ देना चाहिए। जैसे-कमल की नाल है जिसमें बाहर से आने वाले जीव और सम्मूर्छन जीव रहते हैं। तथा अन्य भी बहुत जीवों के स्थानभूत केतकी के फूल, नीम के फूल, सहजना के फूल, अरणी के फूल तथा महुआ आदि फल नहीं खाने चाहिए। बहरात वाले गुरुच, मूली, लहसुन, अदरख आदि तथा नशा पैदा करने वाले भांग, धतूरा आदि भी सेवन नहीं करने चाहिए। धनोपार्जन के लिए क्रूर क्रम वाले ध्यापारों को भी त्याज्य समझकर छोड़ना चाहिए। जिसमें सघात आदि नहीं है, किन्तु अपने को इष्ट नहीं है, वह अपनी प्रकृति के प्रतिकूल नहीं भी है तो भी उसे सदा के लिए छोड़ देना चाहिए । तथा जो इष्ट होने पर भी शिष्ट पुरुषों के सेवन के अयोग्य हैं जैसे—चित्र-विचित्रवस्त्र, विकृत वेशभूषा, आभूषण आदि लार, मूत्र विष्टा, कफ आदि, इनका भी त्याग करना चाहिए । अमृतचन्द्राचार्य ने अनन्तकाय वनस्पति के त्याग पर जोर दिया है । क्योंकि एक के मारनेर सब मर जाते हैं। सोमदेवसरि ने भी अनन्तकाय वाली लता, कन्द आदि का निषेध किया है । व्रत का उद्देश्य विषय सम्बन्धी राग को घटाने का है। ।।३६।।२।।