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रत्नकरण्ड श्रावकाचार प्रयोजनसम्पादकानामपि अथवाऽर्थवतां सग्रन्थानामपि श्रावकाणां । तेषां परिसंख्यानं । किमर्थं ? 'तनकृतये' कृशतरत्वकरणार्थं । कासां ? 'रागरतीनां' रामेण विषयेषु रागो. देकेण रतयः आसक्तयस्तासां । कस्मिन् सति ? अवधौ विषयपरिमाणे ॥३६॥
अब, भोगोपभोगपरिमाणनामक गुणव्रत का कथन करते हैं
(अवधौ) विषयों के परिमाण के भीतर (रागरतीनां) विषय सम्बन्धी राग से होने वाली आसक्तियों को (तनूकृतये) कृश करने के लिए (अर्थवतामपि) प्रयोजन भूत भी ( अक्षार्थानां ) इन्द्रिय विषयों का [ परिसंख्यानं ] परिगणन करना-सीमा निर्धारित करना [भोगोपभोगपरिमाणं] भोगोपभोगपरिमाण नामका गुणवत है।
टोकार्थ—परिग्रह परिमाणवत में परिग्रह की जो सीमा निर्धारित की थी उसमें भी इन्द्रियविषयों का जो परिसंख्यान-नियम किया जाता है वह भोगोपभोग परिमाणवत है । यहां पर टीकाकार ने 'अर्थवता' का अर्थ ऐसा भी किया है कि अर्थपरिग्रह रहित मुनि तो सुखादि लक्षणरूप आवश्यक प्रयोजनक वस्तुओं का परिगणन करते ही हैं किन्तु अर्थवान् गृहस्थ श्रावक भी राग के तीन उद्रेक से होने वाली इंद्रियविषयों में तीन आसक्ति को अत्यन्त कृश करने के लिए भोग सामग्री की नियमरूप परिगणना करते हैं । यह भोगोपभोग परिमाण नामक गुणवत है।
विशेषार्थ-परिग्रह परिमाणवत में भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण किया था, उनमें आसक्ति को और भी कम करने के लिए भोगोपभोगपरिमाणवत धारण किया जाता है। भोगोपभोग परिमाणवत में भोग और उपभोग का परिमाण दो रूपों से किया जाता है-एक विधिरूप से दूसरा निषेधरूप से । मैं भोग और उपभोग की इतनी वस्तुओं का इतने समय तक सेवन करूगा, यह विधिरूप है। और मैं भोगोपभोग की इन वस्तुओं का इतने समय तक सेवन नहीं करूगा यह निषेध रूप है। जो एक बार ही सेवन किया जाता है, एक बार भोगकर पुनः नहीं भोगा जाता, उसे भोग कहते हैं। जैसे-भोजन, फूलमाला आदि । तथा जिसका बार-बार सेवन किया जाता है अर्थात् एक बार सेवन करके पुनः सेवन किया जाता है वह उपभोग है। जैसे-वस्त्रादि । एक, दो, दिन या मास आदि परिमितकाल के लिए भोग-उपभोग के त्याग को नियम कहते हैं, और मरणपर्यन्त तक के त्याग को यम कहते हैं।