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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २११ किन्तु यहां पर राग के उद्रेक से हास्य मिश्रित काम को उत्तेजित करने वाले अश्लील भद्दे वचन बोलना कन्दर्प कहा गया है । भद्दे वचन बोलते हुए हाथ आदि अंगों से शरीर की कुचेष्टा करना कौत्कुच्य कहलाता है । धृष्टता से निष्प्रयोजन बहुत बोलना मौखर्य कहलाता है । जितने पदार्थों से अपने भोगोपभोग की पूर्ति होती है उससे अधिक संग्रह करना अतिप्रसाधन कहलाता है तथा बिना प्रयोजन ही अधिक कार्य करना असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है । ये पांच अनर्थदण्डव्रत के अतिचार हैं ।
विशेषार्थ-कामविकार उत्पन्न करने वाले एवं राग की तीव्रता से हँसी से मिश्रित असभ्यवचनों का प्रयोग करते रहना कन्दर्प है। मित्रों की गोष्ठी में बैठकर लोग अश्लील अभद्र वचनों का प्रयोग करते रहते हैं, हंसी-ठट्टा आदि से अपनी भाषा का दुरुपयोग करते हैं और विकारी भावों की वृद्धि करते हुए अशुभास्रव करते हैं। तथा भौंह, आँख, ओष्ठ, नाक, हाथ, पैर और मुख के विकारों के द्वारा कुचेष्टा के भावों को व्यक्त करते रहते हैं। बिना विचारे अण्ट-सण्ट बोलना अर्थात् धृष्टता को लिए हुए असत्य और असम्बद्ध बकवास करना, बिना विचारे कोई भी कार्य करना, जैसे-तृणों की चटाई बनाने वालों से कहना बहुतसी चटाई लाना मुझे जितनी आवश्यकता होगी मैं खरीद लूगा, बाकी भी बिकवा दूंगा, इस प्रकार बिना विचारे बहुत आरम्भ करना, बहुतसी ईंटें पकवा लेना, लकड़ी कटवाना, भोगोपभोग के पदार्थों का अनावश्यक संग्रह करना, यदि स्नान के लिए नदी-तालाब पर जावे तो तेल साबुन आदि सामग्री इतनी अधिक ले जाना की स्वयं भी उसको काम में लेवे और दूसरे लोग भी उसका उपयोग करके जीव वध करें, ऐसा करना उचित नहीं है। इन क्रियाओं से बत मलिन होता है। इसलिए इनको अतिचार कहा है। उमास्वामी आचार्य के 'उपभोग-परिभोगानर्थक्य' के स्थान पर समन्तभद्रस्वामी ने 'अतिप्रसाधन' शब्द का प्रयोग किया है किन्तु इसमें शब्द भेद है, अर्थ में कोई भेद नहीं है ॥३५।।१।।
साम्प्रतं भोगोपभोगपरिमाणलक्षणं गुणवतमाख्यातुमाहअक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अर्थवतामध्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये ॥३६॥३७॥
'भोगोपभोगपरिमाणं' भवति । किं तत् ? 'यत्परिसंख्यान' परिगणनं । केषां ? 'अक्षार्थाना' मिन्द्रियविषयाणां । कथम्भूतानामपि तेषां ? 'अर्थवतामपि' सूखादिलक्षण