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रत्नकरण्ड श्रावकाचार को द्वार बगैरह बन्द करके रोकना । अनावश्यक वनस्पति जीवों का घात करना, निष्प्रयोजन स्वयं धूमना और दूसरों को घुमाना आदि सभी कार्य प्रमादचर्या अनर्थदण्ड में गभित हैं । यद्यपि अणुनती मनुष्य आवश्यकतानुसार ये सब कार्य करता है, क्योंकि वह स्थावर हिंसा का त्यागी नहीं है । तथापि 'मुझ से स्थावर जीवों का अनावश्यक घात न हो इस बात का उसे सदा ध्यान रखना चाहिए । 'प्रमादात् चर्या प्रमादचर्या' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जितने भी कार्य प्रमादपूर्वक किये जाते हैं, वे सब प्रमादचर्या मापक अनर्थदण्ड में ही भिल हैं. ती मनुष्य इन सब कार्यों का त्याग करता है तथा प्रमादचर्या अनर्थदण्डवत को धारण करता है ।।३४।।८।।
एवमनर्थदण्डविरतिव्रतं प्रतिपाद्येदानीं तस्यातीचारानाहकन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पञ्च ।
असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकद्विरतेः ॥३५॥३६]
'व्यतीतयोऽतिचाराः भवन्ति । कस्य ? 'अनर्थदण्डकृद्विरतेः' अनर्थं निष्प्रयोजनं दण्डं दोषं कुर्वन्तीत्यनर्थदण्डकृतः पापोपदेशादयस्तेषां विरतिर्यस्य तस्य । कति ? 'पंच' । कथमित्याह-कन्दत्यादि' रागोद्रेकात्महासमिश्रो भण्डिमाप्रधानो वचनप्रयोगः कन्दर्पः, प्रहासो भंडिमावचनं भंडिमोपेतकायव्यापारप्रयुक्त कौत्कुच्य, धाष्टर्यप्रायं बहालापित्वं मौखर्य, यावतार्थेनोपभोगपरिभोगी भवतस्ततोऽधि कस्य करणमतिप्रसाधनम, एतानि चत्वारि, असमीक्ष्याधिकरणं पंचम असमीक्ष्य प्रयोजनमपर्यालोच्य आधिक्येन कार्यस्य करणमसमीक्ष्याधिकरणं ।।३५।।
इस प्रकार अनर्थदण्डविरतिव्रत का निरूपण कर अब उसके अतिचार कहते हैं
( कन्दर्प ) राग की तीव्रता से स्य-परिहास में भद्दे वचन बोलना, (कौत्कुच्यं) शरीर की कुचेष्टा करना ( मौखयं ) बकवास करना ( अतिप्रसाधनं ) भोगोपभोग की सामग्री का अधिक संग्रह करना ( च ) और ( असमीक्ष्य ) बिना प्रयोजन के ही (अधिकरणं) किसी कार्य का अधिक आरम्भ करना ये ( पञ्च ) पांच (अनर्थदण्ड कृद्विरते:) अनर्थदण्ड विरतिव्रत के (व्यतीतयः) अतिचार हैं।
टीकार्थ-निष्प्रयोजन दोष करने को अनर्थदण्ड कहते हैं। इनके त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । इसके पांच अतिचार हैं, यथा-यद्यपि कन्दर्प का अर्थ काम है,