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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २०९ पतन करता चला जाता है, इसलिए व्रती मनुष्यों को इन सबका त्याग करना चाहिए ।। ३३ ।। ७६ ।।
अधुना प्रमादचर्यास्वरूप निकायनान-- क्षितिसलिलवहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदं ।
सरणं सारणमपि च प्रमादचयाँ प्रभाषन्ते ॥३४॥३५॥
'प्रभाषन्ते' प्रतिपादयन्ति । कां ? प्रमादचर्यां । किं तदित्याह-'क्षितीत्यादि। क्षितिश्च सलिलं च दहनश्च तेषामारम्भं क्षितिखननस लिलप्रक्षेपणदहनप्रज्वलनपवनकरणलक्षणं । किं विशिष्टं ? 'विफलं' निष्प्रयोजनं । तथा वनस्पतिच्छेदं विफलं । न केवलमेतदेव किन्तु 'सरणं' 'सारणमपि च सरणं स्वयं निष्प्रयोजनं पर्यटनं सारण मन्यस्य निष्प्रयोजनं गमनप्रेरणं ॥३४।।
अब प्रमादचर्या अनर्थदण्ड का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
(विफलं) निष्प्रयोजन ( क्षितिसलिलदनपवनारम्भं ) पृथिवी, पानी अग्नि और वायु का आरम्भ करना, (वनस्पतिच्छेदं) बनस्पति का छेदना, ( सरणं ) स्वयं घुमना (च) और (सारण अपि) दूसरों को घुमाना भी, इस सबको ( प्रमादचर्या ) प्रमादचर्या नामका अनर्थदण्ड कहते हैं। इससे निवृत्त होने को प्रमादचर्या अनर्थदण्डव्रत कहते हैं।
____टोकार्थ-प्रमादचर्या का प्रतिपादन करते हैं, तद्यथा - निष्प्रयोजन-पृथ्वी को खोदना, पानी छिड़कना, अग्नि जलाना, हवा करना, निष्कारण फल-फूलादि वनस्पति को तोड़ना, इतना ही नहीं किन्तु निष्प्रयोजन स्वयं घूमना और दूसरों को घुमाना यह सब प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है। इससे निवृत्त होना प्रमादचर्या अनर्थदण्डवत है।
विशेषार्थ—बिना प्रयोजन भूमि को नहीं खोदना चाहिए। बिना प्रयोजन जल का दुष्प्रयोग नहीं करना चाहिए । जैसे जलाशयों में घंटों तक तैरते रहना या जल को भूमि पर डालते रहना, अग्नि को निष्प्रयोजन जलाते रहना, अग्नि को पानी से बुझा देना, पंखा आदि चलाकर वायुकायिक जीवों को त्रास देना अथवा आती हुई वायु