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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
दुःश्रुति का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं-
( आरम्भसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनेः ) आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, अहंकार और काम के द्वारा ( चेतः) चित्त को ( कलुषयताम् ) कलुषित करने वाले ( अवधीनां ) शास्त्रों का ( श्रुतिः) सुनना दृश्रुतिः ) दुःश्रुति नामका अनर्थदण्ड (भवति) है 1
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टोकार्थ - खेती आदि करना आरम्भ है । और संग परिग्रह है । इन दोनों का प्रतिपादन वार्तानीति में किया जाता है । 'कृषि पशुपाल्यं - वाणिज्यं च वार्ता' इति अभिधानात् अर्थात् खेती, पशुपालन और व्यापार यह सब वार्ता है, ऐसा कहा गया है। अर्थशास्त्र को वार्ता कहते हैं । साहस का अर्थ अत्यन्त आश्चर्यजनक कार्य है । जिसका वर्णन वीर पुरुषों की कथाओं में किया जाता है । अर्द्ध तवाद तथा क्षणिकवाद मिथ्यात्व हैं । इनका वर्णन प्रमाणविरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक शास्त्रों के द्वारा किया गया है । द्वेष - द्वेषीकरण-द्वेष को उत्पन्न करने वाले शास्त्रों के द्वारा कहा जाता है । वशीकरण आदि शास्त्रों के द्वारा राग उत्पन्न किया जाता है । मद अहंकार है । इसकी उत्पत्ति 'वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः' वर्णों का गुरु ब्राह्मण है इत्यादि ग्रन्थों से जानी जाती है । मदन का अर्थ काम है | यह रतिगुण विलासपताका आदि शास्त्रों से उत्कष्ट होता है । इस प्रकार आरम्भादि के द्वारा चित्त को कलुषित करने वाले शास्त्रों का श्रवण करना दु:श्रुतिनामक अनर्थदण्ड है । इसका त्याग करना दुःश्र ति अनर्थदण्डव्रत है ।
विशेषार्थ - कुछ शास्त्र ऐसे होते हैं जिनमें मुख्यरूप से काम, भोग सम्बन्धी या हिंसा चोरी आदि का ही कथन रहता है । जैसे - वात्स्यायन का काम सूत्र है । कोकशास्त्र, जासूसी उपन्यास, वशीकरण आदि तन्त्रशास्त्र तथा आरम्भ-परिग्रह विषयकशास्त्र इनके सुनने से मन विकृत होता है, पढ़कर काम विकार उत्पन्न होता है बुरी आदतें पड़ जाती हैं । अतः ऐसी पुस्तकों को या शास्त्रों को पढ़ना दुःश्रुति अर्थदण्ड है । व्रती मनुष्य को ऐसे शास्त्रों का पठन-मनन नहीं करना चाहिए।
जो खोटे मार्ग का निराकरण करके सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग में अग्रसर करे, तथा आत्मा को परमात्मा बना सके ऐसे सच्चे शास्त्रों का पठन-श्रवण-मनन ही श्रेयस्कर है। कुशास्त्रों में बुद्धि का दुरुपयोग करने से मनुष्य आरम्भ, परिग्रह में फँसकर अपना