SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २०७ ! चिन्तन करना सो अपध्याय नामक अर्थ है । देवाना के ज्ञाता पुरुष कहते हैं । रत्नकरण्ड श्रावकाचार विशेषार्थ --- 'परेषां जयपराजयबधाऽङ्गच्छेदस्वहरणादि कथं स्थादिति मनसा - चिन्तनमपध्यानं' अर्थात् राग के कारण अमुकव्यक्ति को युद्ध में विजय प्राप्त हो जाय तो बहुत ही अच्छा हो, द्व ेष के कारण अमुक व्यक्ति की हार हो जाय तो अच्छा हो । तथा जिससे अपना वैरभाव है उसके प्रति निर्देयभाव से विचारना कि इसको जान से मार दिया जाय तो अच्छा रहे । अथवा इसके अंगोपांगों का छेद हो जाय, इसका सारा धन चोरी में चला जाय तो बहुत अच्छा हो, इस तरह का खोटा ध्यान राग-द्वेष के कारण होता है । एक ही विषय में मनके एकाग्र करने को ध्यान कहते हैं । ध्यान के चार भेद हैं। उनमें आतं ध्यान, रौद्रध्यान ये दो ध्यान खोटे ध्यान हैं । आर्त पीड़ा या कष्ट को कहते हैं । उसका ध्यान आत्तं ध्यान कहलाता है। इसी प्रकार वैर घातादि का चिन्तन करना रौद्रध्यान है । अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है कि मोहवश सभी मनुष्यों के चित्त में सदा स्वभाव से ही आपत्ति के कारण राग-द्वेष छल-कपट आदि दोष रहा करते हैं । तथापि शिकार, जय पराजय, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी आदि का चिन्तवन कभी नहीं करना चाहिए। क्योंकि उसका फल केवल पापबन्ध है । इसलिए व्रती मनुष्य ऐसे कार्यों से सदा दूर रहते हैं । यह अपध्यान अनर्थदण्डव्रत है ||३२|७८|| साम्प्रतं दुःश्रुतिस्वरूपं प्ररूपयन्ताह आरम्भसंगसाहस मिथ्यात्वद्वेषरागमवमदनैः । चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ 'दुःश्रुतिर्भवति' । कासी ? 'श्रुतिः श्रवणं' । केषां ? ' अवधीतां शास्त्राणां । कि कुर्वतां ? 'कलुषयता' मलिनयतां । किं तत् ? 'चेतः' क्रोधमानमायालोभाद्याविष्टं चित्त' कुर्वतामित्यर्थः । कः कृत्वेत्याह- 'आरम्भेत्यादि' आरम्भश्च कृष्णादिः संगश्च परिग्रहः तयोः प्रतिपादनं वार्तानीतों विधीयते । 'कृषि पशुपाल्यं वाणिज्यं च वार्ता' इत्यभिधानात् साहसं चात्यद्भुतं कर्म वीरकथायां प्रतिपाद्यते मिथ्यात्वं चाद्वैतक्षणिकमित्यादि, प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकशास्त्रेण क्रियते, द्वेषश्च विद्वेषीकरणादिशास्त्रेणाभिधीयते रागश्च वशीकरणादिशास्त्रेण विधीयते मदश्च 'वर्णानां ब्राह्मणो गुरु' रित्यादिग्रन्थाज्ज्ञायते, मदनश्च रतिगुणविलासपताकादिशास्त्रादुत्कटो भवति तैः एतैः कृत्वा चेतः कलुषयतां शास्त्राणां श्रतिदु श्रुतिर्भवति ॥ ३३॥
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy