SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार २०६ ] विशेषार्थ-यद्यपि प्रती मनुष्य स्वयं के उपयोग के लिए परशु, तलवार, गेंती, फावड़ा, आग, शस्त्र, हल-मूसल आदि हिंसा के उपकरणों को रखते हैं और सावधानी से उनका उपयोग करते हैं, किन्तु हिंसा के इन उपकरणों को दूसरों को देना हिंसादान कहा है । गृहस्थी के लिए कभी-कभी अणुनती गृहस्थ को भी आग, मूसल, ओखली आदि दूसरों से लेने की आवश्यकता होती है। यदि वह स्वयं न देगा तो दूसरे भी उसको कैसे देंगे? पं. आशाधरजी को इस कठिनाई का अनुभव हुआ होगा, इसलिए उन्होंने इतना विशेष कथन करना उचित समझा कि जिनसे हमारा पारस्परिक लेन-देन का व्यवहार चलता है उनको तो रसोई बनाने के लिए अग्नि, मूसल आदि वस्तुएँ देना चाहिए, किन्तु जिनसे हमारा ऐसा व्यवहार नहीं है, उन्हें रसोई बनाने के लिए भी आग वगैरह नहीं देनी चाहिए । ऐसी घटनाएँ ग्रामों में सुनी गई हैं कि अपरिचित आदमो ने आग मांगी ओर उसी गांव में उसने आग लगा दी और स्वयं लापता हो गया। अमृतचन्द्राचार्य ने तो तलवार, धनुष, विष, आग, हलादि हिंसा के साधनों को दूसरों को देने का ही निषेध किया है ॥३१॥७७।। इदानीमपध्यानस्वरूपं व्याख्यातुमाहवधबन्धच्छेदादेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशवाः ॥३९॥३३॥ "अपध्यानं शासति' प्रतिपादयन्ति । के ते ? 'विशदाः' विचक्षणाः । क्व ? 'जिनशासने' । कि तत् ? 'आध्यान' चिन्तनं । कस्य ? 'वधबंधच्छेदादे:'। कस्मात् 'द्वेषात्' । न केवलं द्वेषादपि 'रागाद्वा' ध्यानं । कस्य ? 'परकलादेः' ।।३२॥ अब अपध्यान के स्वरूप का ब्याख्यान करने के लिए कहते हैं (जिनशासने विशदा:) जिनागम में निपुण पुरुष ( द्वेषात् ) द्वेष के कारण किसी के (बधबन्धच्छेदादेः) वध, बन्धन और छेद आदिका ( च ) तथा (रागात) राग के कारण ( परकलत्रादेः ) परस्त्री और का ( आध्यान ) चिन्तन करने को (अपध्यानं) अपध्यान (शासति) कहते हैं । टोकार्थ-द्वेष के वश किसी के मर जाने, बन्धन प्राप्त होने का अथवा अंगउपांगादि छिद जाने का, और राग के कारण परस्त्री आदि का आध्यान-बार-बार
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy