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रत्नकरण्ड थावकाचार अब उन पांच अनर्थदण्डों में सर्व प्रथम पापोपदेश अनर्थदण्ड का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
(तिर्यक्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् ) पशुओं को क्लेश पहुंचाने वाली क्रियाएँ, व्यापार, हिंसा, आरम्भ तथा ठगई आदि की ( कथाप्रसङ्गः प्रसवः ) कथाओं के प्रसङ्ग उत्पन्न करना ( पाप उपदेशः ) पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड (स्मर्तव्यः) स्मरण करना चाहिए।
टोकायं—जो उपदेश पाप को उत्पन्न करने में कारण हो उसे पापोपदेश कहते हैं। उसके तिर्यग्क्लेशादि भेद कहते हैं, अर्थात तियंचों को वश में करने की प्रक्रिया तियंग्क्लेश है । जैसे-हाथी आदि को वश में करने की प्रक्रिया। लेन-देन आदि का व्यापार वाणिज्य है । प्राणियों का वध करना हिसा है। खेती आदि का कार्य प्रारम्भ कहलाता है । तथा दूसरों को ठगने आदि की कला प्रलम्भन है। तिर्यग्क्लेश के समान मनुष्यक्लेश भी होता है, अर्थात् मनुष्यों के साथ इस प्रकार की क्रिया करना जिनसे उनको दुःख-क्लेश हो । इन सभी प्रकार की कथा-वार्ताओं का प्रसंग उपस्थित करना अर्थात् बार-बार इनका उपदेश देना वह पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड है । इनके परित्याग करने से पापोपदेश अनर्थदण्डवत होता है।
विशेषार्थ-जो वचन हिंसा, झूठ, चोरी आदि और खेती व्यापार आदि से सम्बन्ध रखते हैं वे नहीं कहने चाहिए और जो इनसे आजीविका करने वाले व्याध, ठग, चोर किसान, भील आदि हैं, उन्हें वैसा उपदेश नहीं देना चाहिए । तथा न गोष्ठी आदि में इस तरह की चर्चा का प्रसंग लाना चाहिए।
(पशु-पक्षियों को कष्ट पहुँचाने वाला व्यापार) हिंसा, आरम्भ, ठगई आदि की चर्चा करना, वह भी उन लोगों में जो यही काम करते हों पापोपदेश है। उसे नहीं करना चाहिए । आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने तो विद्या, वाणिज्य, लेखन, कृषि, सेवा और शिल्प से आजीविका करने वालों को भी पापोपदेश देने का निषेध किया है। इस देश में दासी-दास सुलभ हैं, उन्हें अमुक देश में ले जाकर बेचने पर अधिक लाभ होगा, ऐसा उपदेश देना, क्लेशवाणिज्य हैं । गाय-भैस, बैलादि अमुक देश से खरीदकर अमुकदेश में बेचने से अधिक लाभ होगा ऐसा उपदेश देना तिर्यग्वाणिज्य है । हरिण आदि को पकड़ने के लिए जाल फैलाने वाले, भूकर आदि का शिकार करने वाले और