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रत्नकरण्ड श्रावकाचार अब, वे अनर्थदण्ड कौनसे हैं जिनसे निवृत्त होते हैं, यह कहते हैं
(अदण्डधराः) गणधरदेवादिक ( पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुती: ) पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यानदुःश्रुति और प्रमादचर्या इन (पंच) पांच को (अनर्थदण्डान्) अनर्थदण्ड (प्राहुः) कहते हैं ।
टोकार्थ-दण्ड-मन, वचन, काय के अशुभ व्यापार को दण्ड कहते हैं। क्योंकि ये दण्डों के समान परपीड़ाकारक होते हैं। उन दण्डों को नहीं धारण करने वाले गणधरादि देवों ने पापोपदेश हिसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पांच को अनर्थदण्ड कहा है । इन पांचों से निवृत्त होना ही पांच प्रकार का अनर्थदण्डव्रत है।
विशेषार्थ-पाप का उपदेश देना और पाप का उपदेश सुनना ये दोनों कार्य वचनयोग की दुष्प्रवृत्तिरूप है। खोटा चिन्तन करना यह मनोयोग की दुष्प्रवृत्ति है । हिंसा के उपकरणों को दूसरों को देना तशा प्रमादपूर्वक शरीर की प्रवृत्ति करना यह काययोग की दुष्प्रवृत्ति है। इस प्रकार तीनों योगों की दुष्प्रवृत्तिरूप पांच कार्य हैंपापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्र ति और प्रमादचर्या ये पांच कार्य अनर्थदण्डरूप हैं । इनसे व्यर्थ ही पापकर्म का बन्ध होता है, इसलिए व्रती मनुष्य इनका त्याग करके पांच प्रकार के अनर्थदण्डवतों को धारण करते हैं ।।२६।।७५॥
तत्र पापोपदेशस्य तावत् स्वरूप प्ररूपयन्नाह
तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । कथाप्रसंगः प्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥३०॥3911
'स्मर्तव्यो' ज्ञातव्यः । क: 'पापोपदेशः' पापः पापोपार्जनहेतुरूपदेशः । कथंभूतः? 'कथाप्रसंगः' कथानां तिर्यक्क्लेशादिवानां प्रसंगः पुनः पुनः प्रवृत्तिः । किविशिष्ट: ? 'प्रसवः' प्रसूत इति प्रभवः उत्पादकः। केषामित्याह-'तिर्यगित्यादि' तिर्यक्क्लेशश्च हस्तिदमनादिः, वणिज्या च वणिजां कर्म क्रय विक्रयादि, हिंसा च प्राणिवधः, आरम्भश्च कृण्यादिः, प्रलम्भनं च वंचनं तानि आदिर्येषां मनुष्यक्लेशादीनां तानि तथोक्तानि तेषाम् ॥ ३० ॥