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________________ २०३ ] रत्नकरपड श्रावकाचार पापसहित योगों से ( विरमणं ) निवृत्त होने को ( अनर्थदण्डवतं ) अनर्थदण्डवत ( विदुः ) जानते हैं। टीकार्थ-वतधर का अर्थ पंचमहावतों को धारण करने वाले यति, मुनि, उनमें जो प्रधानभूत तीर्थंकरदेवादि वे वृतधराग्रणी कहलाते हैं। इस तरह वृतधारियों में अग्रणी तीर्थंकरदेव ने अनर्थदण्डबूत का लक्षण इस प्रकार बतलाया है कि दिग्वत की मर्यादा के भीतर निष्प्रयोजन, पापरूप मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से निवृत्ति होना अनर्थदण्डवत है। दिग्वृत में मर्यादा के बाहर निरर्थक पापों की निवृत्ति होती है और अनर्थदण्डवत में दिग्वत की सीमा के भीतर होने वाले पापपूर्ण व्यर्थ के कार्यों से निवृत्ति होती है । यही इन दोनों में अन्तर है। विशेषार्थ--दिग्वत की मर्यादा के भीतर भी निष्प्रयोजन पाप न करने का नाम अनर्थदण्डवत है। दण्ड कहते हैं मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को और अनर्थ का अर्थ होता है बिना प्रयोजन, अर्थात् बिना प्रयोजन मन से विचार करना, वचन से उपदेश आदि देना और शरीर से भी कुछ-न-कुछ कार्य करना इस प्रकार मन-वचनकाय की प्रवृत्ति के द्वारा सस्थावर जीवों को कष्ट देना अनर्थदण्ड है। जैसे-किसी का बुरा हो, नाश हो इस प्रकार का विचार करना । पापरूप कार्यों को करने का उपदेश देना, तथा प्रमादपूर्वक शरीर के द्वारा दुष्प्रवृत्ति करना आदि । जिन कार्यों के करने से अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, ऐसे कार्यों से दूर रहना अनर्थदण्डवत नामक दुसरा गुणवत है ॥२८||७४।। अथ के ते अनर्थदण्डा यतो विरमणं स्यादित्याहपापोपदेशहिसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च । प्राहुः प्रमावचामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥१६3011 दंडा इव दण्डा अशुभमनोवाक्कायाः परपीडाकरत्वात, तान्न धरन्तीत्यदण्डधरा गणधरदेवादयस्ते प्राहुः । कान् ? 'अनर्थदण्डान्' । कति ? 'पंच'। कथमित्याह पापेत्यादि' । पापोपदेशश्च हिंसादानं च अपध्यानं च दुःश्रुतिश्च एताश्चतस्रः प्रमादचर्याचेति पंचामी ।। २६ ।।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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