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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २०१ लाभप्रद स्थान नहीं है इसलिए पूर्व को मर्यादा कम करके पश्चिम दिशा की मर्यादा बढ़ा लेना, यहां क्षेत्रफल की अपेक्षा तो प्रतिज्ञा का पालन हुआ किन्तु प्रतिज्ञापालन करने का मूल उद्देश्य जो आरम्भ और लोभ कम करने का था उसका भंग हो गया अतः भंगाभंग की अपेक्षा अतिचार माना गया है । जो मर्यादा निर्धारित की थी बुद्धि की मन्दता से या सन्देह होने से अथवा किसी प्रकार की व्याकुलता होने से या चित्तविक्षिप्त होने से उसे की हुई मर्यादा को भूल जाना विस्मरण अतिचार है जैसे कि सौ योजन की मर्यादा की है ? या पचास योजन की की है ? ऐसी स्थिति में यदि बह पचास योजन आगे जाता है तो अतिचार है और यदि सौ योजन आगे जाता है तो भी व्रत की सापेक्षता होने से अतिचार है। किन्तु सौ योजन से प्रागे जाता है तो वत का भंग होने से विस्मरण नामका अतिचार है । उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में इसे स्मृत्यन्तराधान नामक अतिचार कहा है अर्थात् की हुई स्मृति के स्थान पर दूसरी स्मृति बना लेना ॥२७।।७३।।
इदानीमनर्थदण्डविरति लक्षणं द्वितीयं गुणवृतं व्याख्यातुमाह
अभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थकेभ्यः सपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डातं विदुर्भतधरानण्यः ॥८॥2e}
'अनर्थदण्डवृतं विदु' जर्जानन्ति ! के ते ? 'वृतधरानण्यः' धृतधराणां यतीनां मध्येऽनण्यः प्रधानभूतास्तीर्थकरदेवादयः । विरमणं" व्यावत्तिः । केभ्यः ? 'सपापयोगेभ्यः' पापेन सह योगः सम्बन्धः पापयोगस्तेन सह वर्तमानेभ्यः पापोपदेशाद्यनर्थदण्डेश्यः । किविशिष्टेभ्यः ? 'अपार्थक्रेभ्य:' निष्प्रयोजनेभ्यः । कथं तेभ्यो विरमणं ? 'अभ्यन्तर. दिगवधेः' दिगवधेरभ्यन्तरं यथा भवत्येवं तेभ्यो विरमणं । अतएव दिग्विरतिवतादस्य भेदः । तदबते हि मर्यादातो बहिः पापोपदेशादिविरमणं अनर्थदण्डविरतिवृते तु ततोऽभ्यन्तरे तद्विरमणं ॥२८॥
अब अनर्थदण्डविरति नामक द्वितीय गुणबूत का व्याख्यान करने के लिए कहते हैं
( वतधराग्रण्यः ) वत धारण करने वाले मुनियों में प्रधान तीर्थंकरदेवादि (दिगवधेः) दिग्वत की सीमा के भीतर (अपार्थकेभ्यः) प्रयोजन रहित (सपापयोगेभ्यः)