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रत्नकरण्ठ श्रावकाचार
[ १९९ देस्त्यागः । तथा वचसा कायेन चेति । केषां तैस्त्यायो महानतं? 'महतां' प्रमत्तादिगुणस्थानवतिनां विशिष्टात्मनाम् ।।२६।।
कोई प्रश्न करता है कि उसके वे चारित्रमोहरूप परिणाम उपचार से महाव्रत के कारण क्यों हैं ? साक्षात् महानतरूप क्यों नहीं होते ? इसका समाधान करते हुए महानत का लक्षण कहते हैं
(हिसादीनां) हिंसा आदिक (पञ्चानां) पाँच (पापानां) पापों का (मनोबचःकायैः) मन वचन काय (तथा) और (कृतकारितानुमोदैः) कृतकारित अनुमोदना से (त्यागः) त्याग करना ( महतां ) प्रमत्तविरत आदि गुणस्थानवर्ती महापुरुषों का (महानतं) महाव्रत (भवति) होता है ।।
दोकार्थ-हिंसा, असत्य, चोरी अब्रह्म और परिग्रह ये पांच पाप पापोपार्जन के हेतु हैं । इसलिए इनका मन-वचन-काय और कुत-कारित-अनुमोदना इन नौ कोटि से त्याग करना महाघ्रत कहलाता है । यह महाबत प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती विशिष्ट मुनियों के ही होता है, अन्य के नहीं ।
विशेषार्थ-संसार में अधिकांश प्राणियों की प्रवृत्ति हिंसादि पांच पापों में हो रही है । यही कारण है कि उन्हें संसार में ही भ्रमण करना पड़ रहा है । संसार में विरले ऐसे प्राणी हैं जो हिसादि कार्यों को पाप समझकर उनका परित्याग कर देते हैं । उन्हीं के इस उत्कृष्ट कार्य को महान् बतलाया है और उसी को महाव्रत कहा है।
जो पाप स्वयं किया जाता है, वह कृत है । जो दूसरों से कराया जाय उसे कारित कहते हैं और किसी के करने पर उसकी प्रशंसा की जाय उसे अनुमोबना कहते हैं । ये तीनों कार्य मन से, वचन से और काय से होते हैं। इसलिए सब मिलकर नौ कोटियों से होते हैं । इन नौ कोटियों से हिंसादि पंच पापों का परित्याग करना महात्रत कहलाता है। महाव्रत का प्रारम्भ प्रमत्तसंयत छठे गुणस्थान से ही होता है। इसके पहले पंचम गुणस्थानवी जीवों के प्रत अणुव्रत कहलाते हैं और पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक अवती कहे जाते हैं। अर्थात् इनके कोई भी व्रत नहीं है। ।। २६ ।। ७२ ।।
इदानी दिग्विरतिव्रतस्यातिचारानाहः