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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
निमित्त पड़ता है और भावकर्म के उदय का निमित्त पाकर द्रव्यकर्म बँधता है। प्रत्याख्यान कषाय महनत की घातक है, इसके उदय में महाव्रत नहीं होते । श्रावकों के जब तक इसका उदय है तब तक उनके परिणाम महाव्रतों को धारण करने के नहीं होंगे । ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होता है कि श्रावक के अणुव्रत महाव्रत कैसे हो सकते हैं ? उसी के समाधान के लिए यह कथन है कि दिग्त्रत धारण करने से प्रत्याख्यानावरण नामक द्रव्य क्रोध का उदय बहुत ही मन्द हो जाता है और उससे उस श्रावक के प्रत्याख्यातावरण नामक चारित्रमोहनीयरूप परिणाम भी इतने क्षीण हो जाते हैं कि उसके अस्तित्व का भी निर्णय करना कठिन हो जाता है । फलतः मर्यादा के बाहर सर्व पापों से विरत होने से अणुव्रत उस क्षेत्र की अपेक्षा महाव्रत होते हैं ।
स्वामी समन्तभद्र ने ऐसा ही कहा है-यथा- प्रत्याख्यानावरण कषाय के मन्द उदय के कारण चारित्रमोहरूप परिणाम मन्दतर होने से उनका अस्तित्व भी कठिनता से ही प्रतीत होता है । इसी से अणुव्रत महाव्रत के तुल्य प्रतीत होते हैं । वास्तव में उसके महाव्रत नहीं है ।
अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायों को तीव्रतर तीव्र, मन्द, मन्दतर के भेद से चार-चार प्रकार की अनुभाग शक्ति पाई जाती है । जिस प्रकार एक जीव तो अनन्तानुबन्धी के तीव्रतर उदय से सातवें नरक की तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु का बन्ध करता है और दूसरा अनन्तानुबन्धी के मन्दतर उदय में नौवें ग्रैवेयक के देवों की इकतीस सागरकी आयुका बन्ध करता है । यद्यपि अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के मन्दोदय में अणुव्रत या महाव्रतरूप परिणति हो जाती है किन्तु करणानुयोग को दृष्टि से वह अणुव्रती या महाव्रती नहीं है ।।२५।। ७१ ।।
ननु कुतस्ते महाताय कल्प्यन्ते न पुनः साक्षान्महाव्रतरूपाभवन्तीत्याह
पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचः कायैः । कृतकारितानुमोदस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ॥ २६ ॥ २७॥
'त्यागस्तु' पुनर्महान्प्रतं भवति । केषां त्यागः 'हिंसादीनां ' 'पंचानां' । कथंभूतानां 'पापानां पापोपार्जन हेतुभूतानां । कैस्तेषां त्यागः 'मनोवचः कार्यः' तैरपि कः कृत्वा त्यागः ? ' कृतकारितानुमोदः । अयमर्थः - हिसादीनां मनसा कृतकारितानुमो