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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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निश्चित करने के लिए समुद्र, नदी, जंगल, देश और योजन आदि को मर्यादा रूप से स्वीकार किया है ।
विशेषार्थ - दिग्बत का धारक पुरुष इस प्रकार नियम करता है कि मैं अमुक समुद्र तक या अमुक नदी तक या अमुक जंगल तक या अमुक देश तक या इतने योजन तक यातायात करूंगा, बाहर नहीं । इस प्रकार इच्छायें स्वयं सीमित हो जाती हैं और परिग्रह की इच्छा कम होने से हिंसादि पाप भी स्वयं कम हो जाते हैं, इसलिए दिग्वलय की सीमा प्रत्येक मनुष्य को करनी चाहिए ||२३|| ६६||
एवं दिग्विरतितं धारयतां मर्यादातः परतः किं भवतीत्याहअवधेहिरणुपाप प्रतिविरतदिग्धतानि धारयताम् । पञ्च महाव्रत परिणतिमणुव्वतानि प्रपद्यन्ते ॥ २४॥ २५ ॥
'अणु तानि प्रपद्यन्ते' । कां ? 'पंचमहातपरिणति' । केषां ? 'धारयतां ' । कानि ? 'दिग्वतानि' | कुतस्तत्परिणति प्रपद्यन्ते ? 'अणुपाप प्रतिविरते:' सूक्ष्ममपि पापं प्रतिविरतेः व्यावृत्त ेः । क्व 'बहि:' । कस्मात् ? । कस्मात् ? 'अवधेः ' कृत मर्यादायाः ।। २४ ॥
इस प्रकार दिग्विरतिव्रत को धारण करने वाले पुरुषों के मर्यादा के बाहर क्या होता है, यह कहते हैं
( दिग्न्रतानि ) दिग्बतों को ( धारयताम् ) धारण करने वाले पुरुषों के ( अणुव्रतानि) अणुव्रत ( अवधेः ) की हुई मर्यादा के ( बहि: ) बाहर ( अणुपापप्रति - विरते ) सूक्ष्म पापों की भी निवृत्ति हो जाने से ( पञ्चमहातपरिणति ) पंचमहाव्रतरूप परिणति को ( प्रपद्यन्ते ) प्राप्त होते हैं ।
टोकार्थ -- जो मनुष्य दसों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा करके मर्यादा के बाहर नहीं आता-जाता, इसलिए स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही प्रकार के पाप छूट जाते हैं । अतएव मर्यादा के बाहर अणुव्रत भी महाव्रतपने को प्राप्त हो जाते हैं ।
विशेषार्थ - अणुव्रत धारण करने वाले जीवों का मर्यादा के भीतर आवागमन चलता रहता है इसलिए हिंसादि पापों का स्थूलरूप से ही त्याग हो पाता है | श्रावक