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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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भूल जाने की सम्भावना है। यह व्रत अणुवती के लिए है, महाव्रती के लिए नहीं । महाव्रती तो समस्त आरम्भ और परिग्रह से विरत होता है तथा समितियों में तत्पर रहता है । जिसने परिग्रह सम्बन्धी अनन्त इच्छाओं का दमन कर लिया उसने अनेक पापों से अपने आपकी रक्षा स्वयं करली, ऐसा समझना चाहिए । दिग्वत में गमनागमन की सीमा निश्चित होने से अनन्त इच्छाओं का दमन होता है, इस प्रकार दिग्ग्रत का मुख्य उद्देश्य आरम्भ और लोभ को कम करने का है ||२२|| ६८ ।।
तत्र दिग्वलयस्य परिगणितत्वे कानि मर्यादा इत्याह
मकराकर सरिदवीगिरिजन पदयोजनानि मय्र्यादाः । प्राहूदिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥ २३ ॥ २४ ॥
'प्राहुः कामीत्याह करे' व्यादि - मकराकरश्च समुद्रः सरितश्च नद्यो गंगाद्याः, अटवी दण्डकारण्यादिका, गिरिश्च पर्वतः सह्यविन्ध्यादिः, जनपदो देशो, वराट-वापीतटादिः, 'योजनानि' विंशतित्रिंशदादि संख्यानि । किविशिष्टान्येतानि ? 'प्रसिद्धानि' दिग्बिरति मर्यादानां दातृगृहीतुश्च प्रसिद्धानि । कासां मर्यादाः ? 'दिशां' | कति संख्यावच्छिन्नानां 'दशानां' । कस्मिन् कर्त्तव्ये सति मर्यादाः ? 'प्रतिसंहारे' इतः परतो न यास्यामीति व्यावृती || २३ ||
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आगे, दिग्वलय का परिगणन करने के लिए मर्यादा किस प्रकार ली जाती है, यह कहते हैं
( दशानां दिशाम् ) दसों दिशाओं के ( प्रतिसंहारे ) परिगणित करने में ( प्रसिद्धानि ) प्रसिद्ध ( मकराकरसरिदटवी गिरिजनपदयोजनानि ) समुद्र, नदी, अटवी, पर्वत, देश और योजन को ( मर्यादा) मर्यादा ( प्राहुः ) कहते हैं ।
टोकार्थ - मकराकर समुद्र को कहते हैं । सरित् - गंगा - सिन्धु आदि नदियां । अवी-दण्डकवन आदि सघन जंगल को कहते हैं । गिरि का अर्थ पर्वत है जैसे सह्याचलविन्ध्याचल आदि । जनपद का अर्थ देश है, जैसे- वराट-वापीतट आदि देश । और योजन का अर्थ बोस योजन-तीस योजन आदि । प्रत देने वाले और व्रत लेने वालों को जिसका परिचय हो उन्हें प्रसिद्ध कहते हैं । पूर्वादि दशों दिशाओं सम्बन्धी सीमा