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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ १९३ (आमृति) मरणपर्यन्त (अणुपापविनिवृत्त्य) सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए (दिग्बलयं) दिशाओं के समूह को (परिगणितं) मर्यादा सहित (कृत्वा) करके (अहं) मैं (अत:) इससे (बहिः) बाहर (न यास्यामि) नहीं जाऊंगा । (इति संकल्प:) ऐसा संकल्प करना (दिग्व्रतम्) दिव्रत (भयति) होता है। टोकार्थ-दसों दिशाओं में सीमा निर्धारित करके ऐसा संकल्प करना कि मैं इस सीमा से बाहर नहीं जाऊंगा, इसे दिग्द्रत कहते हैं । दिग्वत मरण पर्यन्त के लिए धारण किया जाता है । दिग्वत का प्रयोजन सूक्ष्म पापों से निवृत्त होना है। अर्थात् मर्यादा के बाहर सर्वथा जाना-आना बन्द हो जाने से वहां सूक्ष्मपाप की भी निवृत्ति हो जाती है। विशेषार्थ-दिग्विरति शब्द का अर्थ है दसों दिशाओं में नियमित सीमा निर्धारित कर उससे बाहर आने-जाने से निवृत्ति, यही इस व्रत का लक्षण है। यह नियम अणुनती के लिए है, महाव्रती के लिए नहीं। क्योंकि महावती तो समस्त आरम्भ और परिग्रह से विरत होते हैं, और समितियों का पालन करने में तत्पर रहते हैं। अत: वे मनुष्य लोक में इच्छानुसार भ्रमण कर सकते हैं । ग्रन्थकार ने कहा है कि दिशाओं की मर्यादा करके मैं इसके बाहर मरणपर्यन्त नहीं जाऊंगा, ऐसा नियम दिग्वत है । लाटी संहिता में भी कहा है कि जब तक में सचेतन हूँ तब तक इस शरीर से मर्यादा के बाहर नहीं जाऊँगा । इस प्रकार दिग्वत में दशों दिशाओं की मर्यादा आवश्यक है, एक-दो दिशाओं की मर्यादा को दिव्रत नहीं कहा है । सर्वार्थसिद्धि में यह शंका की गयी है कि-'अत्राह कि हिंसादिनामन्यतमस्माद्यः प्रतिनिवृतः स खल्वगारो व्रती ? नवम् । किं तहि ? पञ्चतय्या अपि विरतेवैकल्येन विवाक्षत इत्युच्यत-'अणवतोऽगारी'-सर्वार्थ सि. ७।२०। प्रश्न-जो हिंसादि पाँच पापों में से एक का त्याग करे, क्या वह अगारीव्रती है ? उत्तर-ऐसी बात नहीं है । जो पांचों पापों का एकदेशत्याग करता है वहीं गृही अणुव्रती है। अतः ग्रन्थकार का उक्त कथन विचारणीय है । अस्तु, दिशाओं की मर्यादा के स्थान प्रसिद्ध होने चाहिए जो मर्यादा देने वाले और लेने वाले के परिचित हों, अन्यथा
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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