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रत्नकरण्ड श्रावकाचार आठ मूलगुणों की वृद्धि में सहायक होने से दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणवत इन तीनों को आर्य पुरुषों ने गुणवतों में परिगणित किया है ।
_ विशेषार्थ-अहिंसादि अणुव्रतों की रक्षा करने के लिए आचार्यों ने तीन गुणवतों का उल्लेख किया है । दिग्विरति, अनर्थदण्डविरति, और भोगोपभोग परिमाण ये तीन गुणवत, स्वामी समन्तभद्र के मतानुसार हैं । सात शीलव्रत के दो मुख्य भेद हैंगुणवत्त और शिक्षाव्रत । गुणव्रत तीन हैं और शिक्षाबत चार हैं। इस तरह शीलों की संख्या में तथा गुणवत और शिक्षानत के भेदों को संख्या में कोई मतभेद नहीं। किन्तु गुणन और शिक्षानत के प्रसार गेमों में मोड़ा अन्तर है । जैसे—आचार्य कुन्दकुन्द ने, दिशा विदिशा परिमाण, अनर्थदण्ड त्याग, और भोगोपभोग परिमाण को गुणवत कहा है । ऐसा ही कथन पद्मपुराण में है। और भावसग्रह में भी ऐसा ही है । तत्वार्थ सत्र में दिग्विरत और देशविरत को अलग-अलग गिनाया है । उसी के टीकाकार पूज्य. पाद स्वामी ने दिग्विरति देशविरति और अनर्थदण्डविरति को गुणवत कहा है । महापुराण में भी इन्हीं को गुणव्रत कहा है किन्तु यह भी कहा है कि कोई-कोई भोगोपभोग को भी गुणव्रत कहते हैं । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, उपासकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगतिबायका. चार, पयनन्दिपंचविशतिका और लाटीसंहिता तत्वार्थसूत्र के अनुगामी हैं। भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण करने से परिग्रहपरिमाणवत की वृद्धि होती है । इसलिए इसे गुणव्रत में शामिल करना चाहिए ॥२१॥६७।।
तत्र दिग्वतस्वरूपं प्ररूपयन्नाहविग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। इति सह कल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्य ॥२२॥ 2311
'दिव्रत' भवति । कोऽसो ? 'संकल्प:' । कथंभूतः ? 'अतोऽहं बहिर्न यास्यामी' त्येवंरूपः । किं कृत्वा ? 'दिग्वलयं परिगणितं कृत्वा' समर्यादं कृत्वा । कथं ? 'आमृति' मरणपर्यन्तं यावत् । किमर्थं ? 'अणुपापविनिवृत्य' सूक्ष्मस्थापि पापस्य विनिबत्त्यर्थम् ।। २२ ॥
आगे दिग्बतका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं- .