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'आख्यान्ति' प्रतिपादयन्ति । कानि ? 'गुणव्रतानि' । के ते ? 'आर्या' गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्ते प्राप्यन्त इत्याय स्तीर्थंकरदेवादयः । किं तद्गुणवतं ? 'दिखतं' दिग्विति । न केवलमेतदेव किन्तु 'अनर्थदण्डव्रतं चानर्थदण्डविरति । तथा भोगोपभोगपरिमाणं सकृद्भुज्यत इति भोगोशनपानगन्धमाल्यादिः पुनः पुनरुपभुज्यत इत्युपभोगो वस्त्राभरणयानशयनादिस्तयोः परिमाणं कालनियमेन यावज्जीवनं वा । एतानि त्रीणि कस्माद्गुणव्रतान्युच्यन्ते ? 'अनुवृ'हणात्' वृद्धिं नयनात् । केषां ? 'गुणानाम्' अष्टमूलगुणानाम् ।।२१॥
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इस तरह पांच प्रकार के अणुव्रतों का वर्णन कर अब तीन प्रकार के गुणव्रतों का वर्णन करते हुए कहते हैं
( आर्याः ) तीर्थंकर देव आदि उत्तम पुरुष, ( गुणानां ) आठ मूलगुणों को
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( अनुवृ हणात् ) वृद्धि करने के कारण (दिग्वतं ) दिग्वत ( अनर्थदण्डव्रतं ) अनर्थदण्डवत (च) और ( भोगोपभोग परिमाणं ) भोगोपभोगपरिमाणव्रत को ( गुणव्रतानि) गुणवत ( आख्यान्ति ) कहते हैं ।
टोकार्थ- गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यन्ते प्राप्यन्तइत्यार्यास्तीर्थंकरदेवादयः' जो गुणों अथवा गुणवान मनुष्यों के द्वारा प्राप्त किये जावें, उन्हें आर्य कहते हैं । वे आर्य तीर्थंकरदेव, गणधर प्रतिगणधर तथा आचार्य कहलाते हैं । गुण के लिए जो व्रत हैं। उन्हें गुणव्रत कहते हैं ।
दिभ्यत - दशों दिशाओं में आने-जाने की सीमा बाँधना दिग्वत कहलाता है । अनर्थदण्डव्रत – मन, वचन, काय की निष्प्रयोजन प्रवृत्ति के परित्याग को अनर्थदण्डवत कहते हैं ।
भोगोपभोगपरिमाणव्रत- भोग और उपभोग की वस्तुओं का कुछ समय अथवा जीवन पर्यन्त के लिए परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है । जो वस्तु एक बार भोगने में आती है, वह भोग है, जैसे- भोजन, पेयपदार्थ तथा गन्धमाला आदि । और जो बार-बार भोगने में आवे, उसे उपभोग कहते हैं जैसे - वस्त्र, आभूषण पालकी, वाहन, शय्या आदि। इन सभी वस्तुओं का कुछ काल के लिए या जीवनपर्यन्त के लिए, दोनों प्रकार का त्याग होता है । इस प्रकार उपरितन श्लोक में कहे गये