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________________ १९० ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार अर्थ – पंच अणुव्रत, मधु को मांस में गर्भित कर उसके स्थान पर द्यूतत्याग का उल्लेख किया है और मद्य ये अष्टमूलगुण बतलाये हैं । पं० प्राणाधरजी ने मद्यपलमधुनिशाशनपञ्च फलीविरतिपञ्चका प्तनुति । जीवदया जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥ अर्थ – मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग, रात्रि भोजन, पंचफलीत्याग, देवदर्शन, जीवदया, जलगालन | ये आठ मूलगुण बतलाये हैं । गृहस्थों को अपने गृहस्थाचार की रक्षा के लिए इन आठ मूलगुणों का परिपालन करना चाहिए तथा जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पालन करना है तो अवश्य हो हिंसात्मक एवं नशीली वस्तुओं के भक्षण का त्याग कर देना चाहिए। उत्तम कुलोत्पन्न व्यक्ति तो मद्यमांसादि को भोजन करते समय देखलें तो तत्क्षण ही भोजन का त्याग कर देते हैं । भय, ग्लानि, क्रोध, काम, लोभ, हास्य, रति, अरति शोक ये समस्त दोष हिंसा से ही होते हैं । मद्य पीने वाले में भी ये सभी दोष आ जाते हैं । द्वीन्द्रियादि प्राणी के घात से मांस की उत्पत्ति होती है, जिसे देखते ही ग्लानि उत्पन्न होती है, जो दुर्गन्ध युक्त है, जिसके स्पर्श होने से सचैल स्नान करना पड़े, ऐसे अपवित्र प्राणी के कलेवर को भक्षण करने वाले नरकादि दुर्गति के भाजन बनते हैं। क्योंकि मांस के आश्रय बादर अनन्त निगोदिया जीव, असंख्यात त्रस जीवों का घात होता है । मांस तो चाहे कच्चा हो, अग्नि में पक रहा हो, या पक चुका हो इन सभी अवस्थाओं में, जिस पशु का मांस है उसी जाति के सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय अनन्त जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं । मधु, मांस, मद्य और मक्खन इन चार को आचार्यों ने महाविकृति कहा है । इसलिए अहिंसा धर्म का परिपालन करने वाले श्रावकों को इन सभी प्रकार के अभक्ष्य का त्याग करना अति आवश्यक है । आठ मूलगुणों का पालन करने वाला गृहस्थ ही जिनधर्म की देशना का पात्र होता है और तभी वह श्रावक कहलाता हैं ||२०||६६ ॥ एवं पंचप्रकारमणुव्रतं प्रतिपाद्येदानीं त्रिप्रकारं गुणव्रतं प्रतिपादयन्नाह-दिग्धतमनर्थदण्डतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुव' हणाद् गुणानामाख्यान्ति गुणव्यतान्यार्याः ॥ २१ ॥ 2211 •
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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