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रत्नकरण्ड प्रावकाचार
[ १८९ 'गृहिणामष्टौ मूलगुणानाहुः । के ते ? श्रमणोत्तमाः जिनाः। कि तत् ? 'अणुव्रतपंचकम्' । कैः सह ? 'मद्यमांसमधुत्यागैः' मद्य च मांसं च मधु च तेषां त्यागास्तैः ॥ २० ॥
जो ये पांच अणवत कहे हैं वे ही मद्यादि तीन के त्याग के साथ मिलकर आठ मूलगुण होते हैं, यह कहते हैं
(श्रमणोत्तमाः) मुनियों में उत्तम गणधरादिक देव ( मद्यमांस मधुत्यागैः ) भद्यत्याग, मांसत्याग और मधुत्याग के साथ ( अणुव्रतपञ्चकम् ) पांच अणुव्रतों को (गृहिणाम् ) गृहस्थों के (अष्टौ) आठ (मूलगुणान्) मूल गुण (आहुः) कहते हैं ।
टोकार्थ-श्रमण मुनियों को कहते हैं, इनमें जो उत्तम श्रेष्ठ गणधरादिकदेव हैं वे श्रमणोत्तम कहलाते हैं। उन्होंने गृहस्थों के आठ मूलगुण इस तरह कहे हैं१ मद्यत्याग २ मांसत्याग ३ मयुत्याग ४ अहिंसाणुव्रत ५ सत्याणवत ६ अचौर्याणुव्रत ७ ब्रह्मचर्याणुव्रत ८ परिग्रहपरिमाणअणुव्रत ।
विशेषार्य-मुख्य गुणों को मूलगुण कहते हैं । जिस प्रकार मूल-जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहरते, उसी प्रकार मूलगुणों के बिना मुनि और श्रावक के व्रत भी नहीं ठहर सकते । श्रावक के आठ मूलगुण होते हैं और मुनियों के २८ मूलगुण होते हैं। यहां पर समन्तभद्र स्वामी ने पंच अणुनत और मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग ये तीन मिलाकर अष्ट मूलगुण बतलाये हैं, क्योंकि इनके त्याग में जब दृढ़ता हो जाती है तो समझना चाहिए कि समस्त गुणरूप महल की नींव लग गई।
सोमदेवसूरि ने यशस्तिलकचम्पू में इस प्रकार अष्ट मूलगुण कहे हैं
मद्यमांसमधुत्यागः सहोदुम्बर पञ्चकैः ।
अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥ अर्थात्-मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बर त्याग को अष्ट मूलगुण माना है। जिनसेन स्वामी ने
हिंसा सत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । धूतात्मांसान्मद्यविरतिगूहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ।।
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