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________________ १८८ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्मश्रुनवनीत की कथा अयोध्या नगरी में भवदत्त नामका सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था और पुत्र का नाम लुब्धदत्त था । एक बार वह लुब्धदत्त व्यापार के निमित्त दूर गया । वहां उसने जो धन कमाया था वह सब चोरों ने चुरा लिया । तदनन्तर अत्यन्त निर्धन होकर वह किसी मार्ग से आ रहा था। वहां उसने किसी समय एक गोपाल से पीने के लिए छाछ मांगी। छाछ पी चुकने पर उसका कुछ मक्खन मूछों में लग गया । उसे देख उसने 'अरे ! यह तो मक्खन है' यह विचार कर उसे निकाल लिया कि इससे व्यापार होगा । इस तरह वह प्रतिदिन मक्खन का संचय करने लगा । जिससे उसका श्मश्रु नवनीत यह नाम प्रसिद्ध हो गया । इस प्रकार उसके पास जब एक प्रस्थ प्रमाण घी हो गया तब वह घी के बर्तन को अपने पैरों के समीप रखकर तथा शीतकाल होने से झोंपड़ी के द्वार पर पैरों के समीप अग्नि रखकर बिस्तर पर पड़ गया। वह बिस्तर पर पड़ा-पड़ा विचार करता है कि इस घी से बहुत धन कमाकर मैं सेठ हो जाऊँगा, फिर धीरे-धीरे सामन्त-महासामन्त, राजा और अधिराजा का पद प्राप्त कर क्रम से सबका चक्रवर्ती बन जाऊँगा । उस समय मैं सात खण्ड के महल में शय्या तल पर पड़ा रहूंगा । चरणों के समीप बैठी हुई सुन्दर स्त्री मुट्ठी से मेरे पैर दाबेगी । और मैं स्नेहवश उससे कहूंगा कि तुझे पैर दाना भी नहीं आता। ऐसा कहकर में पैर से उसे ताड़ित करूंगा । ऐसा विचारकर उसने अपने आपको सचमुच ही चक्रवर्ती समझ लिया और पैर से ताड़ित कर घी का बर्तन गिरा दिया । उस घी से द्वार पर रखी हुई अग्नि बहुत जोर से प्रज्वलित हो गयी । द्वार जलने लगा, जिससे इच्छाओं के परिमाण से रहित यह निकलने में असमर्थ हो वहीं जलकर मर गया और दुर्गति को प्राप्त हुआ । इस प्रकार पञ्चम अव्रत की कथा पूर्ण हुई ॥१६॥६५॥ यानि चेतानि पंचाणुव्रतान्युक्तानि मद्यादित्रयत्यागसमन्वितान्यष्टौ मूलगुणा भवन्तीत्याह मद्यमांसमधुत्यागैः सहानुग्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणाना हिणां श्रमणोत्तमाः ॥ २०॥ 2911 " L
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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